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श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१०
अंगविज्जा में कला-शिल्प
डॉ. अतुल कुमार प्रसाद सिंह*
[ इसमें लेखक ने अलग-अलग अध्यायों के वर्णन की पृष्ठभूमि में कला एवं शिल्प के सन्दर्भों को सूचीबद्ध किया है और मथुरा कला की कुषाण कला के साथ तुलना का भी प्रयास किया है। अंगविज्जा की सूची के अनेक नाम न केवल शिल्प वरन् शिल्पियों के वर्गों के उल्लेख की दृष्टि से भी ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। गले के आभूषणों में स्वस्तिक तथा श्रीवत्स वाले अलंकरण से युक्त हारों का सन्दर्भ वैयक्तिक शृंगार में मंगलभाव के महत्त्व को उजागर करता है। अंगविज्जा में जन्मकुंडली और उसका फलादेश भी है । ]
श्रमण परम्परा के जिन ग्रन्थों में श्रमप्रधान कलाओं और शिल्पियों का उल्लेख है, उनमें अंगविज्जा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। अंगविज्जा का रचनाकार ज्ञात नहीं है क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति की कृति न होकर अलग-अलग कालखंडों के समूहों के अनुभवों को समेटने वाला संग्रह ग्रन्थ जान पड़ता है। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसका काल कुषाण काल का अंत और गुप्त काल के प्रारम्भ का सन्धिकाल माना है। कला, विशेषकर जैनकला की दृष्टि से यह स्वीकार्य है। यद्यपि अंगविज्जा में जिन कलाओं के नाम आते हैं उनका सीधा सम्बन्ध जैन या श्रमण परम्परा से न होकर पूरे समाज से है लेकिन इन शिल्पियों का सम्बन्ध श्रमण परम्परा से होना स्वीकार किया गया है और इसे जैन विद्या का ग्रन्थ माना गया है।
यह ग्रन्थ गद्य-पद्यमय साठ अध्यायों में विभक्त है और इसमें कुल नौ हजार श्लोक हैं। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत प्रधान होते हुए भी जैन प्राकृत है। अंगविज्जा फलादेश का विशिष्ट ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि द्वारा या जन्मकुण्डली द्वारा फलादेश का निर्देश ही नहीं करता बल्कि मनुष्य की सहज प्रवृत्ति के निरीक्षण द्वारा फलादेश का निरूपण करता है। अतः मनुष्य के चलन और रहन-सहन आदि के विषय में इस ग्रन्थ में विपुल वर्णन पाया जाता है। इस ग्रन्थ की गहनता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके कर्ताओं ने एक बात स्वयं ही स्वीकार कर ली * पूर्व शोध छात्र, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी - ५