Book Title: Sramana 2010 07
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 62
________________ अंगविज्जा में कला-शिल्प : ६१ है कि इस शास्त्र का वास्तविक परिपूर्ण ज्ञाता कितनी भी सावधानी से फलादेश करेगा तो भी उसके सोलह फलादेशों में से एक असत्य होगा। यह शास्त्र यह भी निश्चित रूप से निर्देश नहीं करता कि सोलह फलादेशों में से कौन सा असत्य होगा। यद्यपि ग्रन्थकार ने इसमें मनुष्यों के अंग एवं उनकी विविध चेष्टाओं का विशद रूप में वर्णन करते हुए अंगों के आकार-प्रकार, वर्ण, संख्या, लिंग, स्वभाव आदि को केन्द्र में रखा है तथापि उनकी विभिन्न सांसारिक वस्तुओं और उस समय प्रचलित शिल्पों का भी प्रसंगवश वर्णन होता रहा है। ___ अंगविज्जा के आठवें भूमिकम्म नामक अध्याय में आसनों का उल्लेख आया है जो कई प्रकार के और कई धातुओं या काष्ठों के बने होते थे। इनसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल में ये शिल्प कलाएँ न केवल विकसित अवस्था में थीं बल्कि इनके शिल्पकार भी निपुण हुआ करते थे। सर्वप्रथम आसनों में सस्ते (समग्घ), मंहगे (महग्घ), औसत मूल्य के (तुलग्घ), टिकाऊ रूप से एक स्थान में जमाए हुए (एकट्ठान), इच्छानुसार कहीं भी रखे जाने वाले (चलित), दुर्बल और बली अर्थात् सुकुमार बने हुए या बहुत भारी या संगीन आसनों का उल्लेख आया है। आसनों के भेद गिनाते हुए कहा गया है कि पर्यंक, फलक, काष्ठ, पीठिका या पिढ़िया, आसन्दक या कुर्सी, फलकी, भिसी या बृसी अर्थात् चटाई, चिंफलक या वस्त्र विशेष का बना हुआ आसन, मंचक या माँचा, मसूरक अर्थात् कपड़े या चमड़े का चपटा गोल आसन, बड़ा पेटीनुमा आसन आदि मुख्य थे। इसके अतिरिक्त पुष्प, फल, बीज, शाखा, भूमि, तृण, लोहा, हाथी दांत से बने आसनों का भी उल्लेख है। एक विशेष प्रकार का आसन नहट्ठिका है जिसका अभिप्राय प्रो. अग्रवाल ने गेंडे, हाथी आदि के नख की हड्डियों से बनाया जाने वाला आसन लगाया है। आसनों में आस्तरक या चादर, प्रवेणी या बिछावन और कम्बल के उल्लेख के अतिरिक्त खट्वा, फलकी, डिप्फर, खेडु खंड (सम्भवतः खेल तमाशे के समय काम आनेवाला), समंथनी आदि का भी उल्लेख आया है जो विशेष प्रकार के आसन थे। मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन मूर्तियों में यक्ष, कुबेर या साधु के पैरों और उदर के चारों ओर वस्त्र बंधा हुआ दिखाया गया है। उसे पलत्थिया कहा जाता था। ये दो प्रकार की होती थीं- समग्र-पलत्थिया और अर्ध-पलत्थिया। अर्ध-पलत्थिया दो प्रकार की होती थी जो दाएं और बाएं पैर में अलगअलग बांधी जाती थी। तीस पटलों में विभक्त इस अध्याय के नवमें पटल

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