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भारतीय परम्परा और कला में प्रतीक : सर्वधर्म समन्वय के साक्षी : ५९
रूप में और ऐसे ही वृषभ, गज, सर्प, सिंह विभिन्न देवताओं के वाहनों तथा तीर्थकरों के लांछनों के रूप में अभिव्यक्त हैं। अतः बिना सन्दर्भ के उन्हें धर्म विशेष या सम्प्रदाय विशेष से जोड़ना सम्भव नहीं है।
खजुराहो की कला में श्रीवत्स के अंकन से सम्बन्धित विस्तृत अध्ययन पूर्व मध्यकाल एवं मध्यकाल में प्रतीकों की व्यापकता को उजागर करता है । खजुराहो के ब्राह्मण एवं जैन मन्दिरों (१०वीं से १२वीं शती ई.) पर 'श्रीवत्स' केवल तीर्थंकरों या विष्णु आकृतियों के वक्षस्थल पर ही नहीं उकेरा गया है वरन् सभी ब्राह्मणों और जैन देवमूर्तियों में अनिवार्यतः एक मांगलिक प्रतीक या चिह्न के रूप में उसका अंकन हुआ है। श्रीवत्स का अंकन खजुराहो के ब्रह्मा, शिव, गणेश, बलराम, कुबेर, कार्त्तिकेय, दिक्पाल, कीचक एवं गन्धर्वों की आकृतियों के वक्षों पर तो हुआ ही है, साथ ही मिथुन, मृदंगवादक और काम - कला से जुड़ी पुरुष आकृतियों के वक्षस्थलों पर भी उसका अंकन देखा जा सकता है। मोढ़ेरा सूर्यमन्दिर का ( १०२८ ई.) एवं अन्य उदाहरणों में भी यही विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं। अतः वास्तव में ये उदाहरण प्रतीकों के धार्मिक या सम्प्रदाय विशेष से सम्बद्धता के चिन्तन को स्पष्टतः नकारने और भारतीय परम्परा में उसके व्यापक सन्दर्भ को रेखांकित करने वाले हैं। सन्दर्भ ग्रन्थ
१. वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला, वाराणसी, पृ० ३३६-३७
२. वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला, पृ० ३३-३७; वैदिक सिम्बालिज्म, भारती, वाराणसी, १९६२-६३, पृ० ९५-९७, यू०पी० शाह, स्टडीज इन जैन आर्ट, वाराणसी, १९४५, पृ० १०९-११२, ए. एल. श्रीवास्तव, भारतीय कला प्रतीक, इलाहाबाद, १९८९
३. आदिपुराण, १२/५५, १०१-१९, हरिवंशपुराण, ८/५८-७४
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