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भारतीय परम्परा और कला में प्रतीक : सर्वधर्म समन्वय के साक्षी : ५७ में राजस्थान में ओसियाँ, मध्यप्रदेश में खजुराहो, गुजरात में देलवाड़ा, राजस्थान में मोढेरा, कुम्भारिया, कर्नाटक में हलेबिड, बेलूर, महाराष्ट्र में एलोरा, उड़ीसा में भुवनेश्वर तथा कोणार्क (सूर्य मन्दिर) जैसे महत्त्वपूर्ण मन्दिरों पर स्वस्तिक, श्रीवत्स, सूर्य (या चक्र), शंख और पद्म तथा घट जैसे प्रतीकों और पश आकृतियों को मुख्यतः स्थापत्य के सन्दर्भ में प्रतीकों तथा अलंकरणपरक अभिप्रायों के रूप में दिखाया गया है। मन्दिरों के प्रवेशद्वार के समीप बने दो शंख, शंखनिधियों (कालिदास की रचना में मंगल भाव के सूचक) और शिखर भाग में कलश पूर्णकाम या पूर्णता के भाव के सूचक रहे हैं। इन प्रतीकों को केवल सम्बद्धता या सन्दर्भ के आधार पर ही जैन, बौद्ध या वैदिक-ब्राह्मण परम्परा से जोड़ा जा सकता है। वस्तुतः मूल स्वरूप में किसी भी प्रतीक को बौद्ध, जैन या वैदिक-ब्राह्मण प्रतीक के रूप में परिभाषित करना कठिन है, क्योंकि ये पूर्णरूपेण भारतीय मनीषा को व्यक्त करते हैं। इनमें लोकमंगल और सर्वधर्म समन्वय का भाव है। इसी कारण आज भी करवाचौथ, दीपावली, भाईदूज जैसे धार्मिक अवसरों के अतिरिक्त भी रंगोली, चौक पूरना, अल्पना के रूप में इन प्रतीकों को सर्वत्र लोक-व्यवहार में अभिव्यक्ति मिल रही है। ये प्रतीक अखिल भारतीय चिन्तन और भारतीय संस्कृति की व्यापक एकता को व्यक्त करते हैं।
मध्यकालीन कला के दो प्रचलित देव स्वरूपों के माध्यम से हम मूर्तियों की प्रतीकात्मकता को स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे। इस अवधि में महिषमर्दिनी की मूर्तियाँ सभी क्षेत्रों में प्रचुर संख्या में उकेरी गयी हैं। महिषमर्दिनी मूर्तियों के कुछ मुख्य उदाहरण एलोरा के कैलाश मन्दिर (८वीं शती ई.), महाबलीपुरम (७वीं शती ई.), भुवनेश्वर (७वीं शती ई.), ओसियाँ (८वीं-१०वीं शती ई.), जगत उदयपुर-राजस्थान (९वीं-१०वीं शती ई.। इस मन्दिर पर अलग-अलग स्वरूप लक्षणों वाली कई मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं), खजुराहो (१०वीं-१२वीं शती ई.), हलेबिड (१२वीं शती ई.) के कला उदाहरणों में द्रष्टव्य हैं। इस स्वरूप की कला में विशेष लोकप्रियता का संभावित कारण तत्कालीन राजनीतिक विषमता और चुनौती की परिस्थितियाँ थीं, जिनमें समाज को एक करने या एक रखने की प्रेरणा देना आवश्यक था। समाज के समक्ष सामूहिक शक्ति के समवेत स्वरूप को प्रस्तुत करना उस समय की जरूरत थी, जिसे महिषमर्दिनी स्वरूप के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। हम सभी जानते हैं कि महिषमर्दिनी के स्वरूप और लक्षणों की कल्पना में सामूहिक शक्ति (तेज पुंजस्वरूपा देवी)