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श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१०
भारतीय परम्परा और कला में प्रतीक : सर्वधर्म समन्वय के साक्षी
प्रो० मारुतिनन्दन तिवारी
[कला-इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान प्रो. तिवारी ने इस आलेख द्वारा सर्वधर्मसमन्वय के सूचक भारतीय प्रतीक-चिह्नों को रेखाङ्कित किया है। जैन, बौद्ध और हिन्दू सभी धर्मानुयायिओं ने श्रीवत्स आदि प्रतीक-चिह्नों का समभाव से उपयोग अपनीअपनी कलाकृतियों में किया है। जैन प्रतीकों में त्याग एवं तपस्या को विशेष रूप से उकेरा गया है।]
भारतीय चिन्तन एवं अभिव्यक्ति में प्रतीकों का महत्त्व प्रागैतिहासिक काल से ही द्रष्टव्य है, जिसे वैदिक वाङ्मय में एक विस्तृत आयाम दिया गया है। जीवन से जुड़े मूलभूत तत्त्वों- सूर्य, अग्नि, जल, वायु को मनुष्य ने श्रद्धाभाव के साथ नमन किया। वैदिक एवं परवर्ती ग्रन्थों में चक्र (सूर्यचक्र एवं धर्मचक्र), स्वस्तिक, श्रीवत्स, पद्म, पूर्णघट, त्रिरत्न, मत्स्ययुगल, गज जैसे अनेक प्रतीकों का निरन्तर उल्लेख हुआ है। हरिवंश एवं वास्तुरत्नकोश जैसे ग्रन्थों में १०८ प्रकार के मांगलिक प्रतीकों का सन्दर्भ मिलता है। तक्षशिला, भरहुत, साँची और मथुरा (जैन आयाग पट्ट) की ई० पूर्व एवं ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों की कला में विभिन्न प्रतीकों का अनेकशः अंकन हुआ है, जो जीवन की ऊर्जा, सातत्य, सर्वकल्याण और अखिल भारतीय समन्वयमूलक सोच को दर्शाते हैं। विभिन्न प्रतीकों में से आठ प्रतीकों को लेकर अष्टमांगलिक प्रतीकों की सूची भी लगभग पहली शती ई. पूर्व और ई. सन् के बीच तैयार हुई, जिनका अंकन तक्षशिला भरहुत और साँची के बौद्ध स्तूपों पर स्वतंत्र तथा मांगलिक मालाओं (साँची महास्तूप) के रूप में हुआ है। साथ ही जैन पूजा शिलापट्टों (आयाग पट्टों) पर भी इनका अनेकशः अंकन हुआ है। अष्टमंगल प्रतीकों का उल्लेख महावंस, अंगविज्जा और हर्षचरित जैसे ग्रन्थों में हुआ है। मांगलिक चिह्नों में श्रीवत्स, स्वस्तिक, त्रिरत्न, मत्स्ययुगल, चक्र (धर्मचक्र), भद्रासन, घट, पद्म, कलश और दर्पण का सर्वाधिक अंकन मिलता है। साथ * कला इतिहास एवं पर्यटन प्रबन्ध विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५