________________
३६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१०
इस आधार पर आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री ने धरसेन का समय ७३ ई. से लेकर १०६ ई. तक माना है।४३ कुछ विद्वानों ने सौराष्ट्र के गृहनगर के एक गुफा बाबा प्यारा मठ से प्राप्त एक अभिलेख के आधार पर भी इनके समय को प्रमाणित करने का प्रयास किया है।४४ इस गुफा में स्वस्तिक, भद्रासन, नन्दीपद, मीनयुगल, कलश आदि के चिह्न खुदे हैं। इस खण्डित अभिलेख में कैवल्य ज्ञान, जरा-मरण आदि शब्द भी पढ़े जा सकते हैं। अभिलेख के अत्यधिक खण्डित होने के कारण समस्त लेख का सार ज्ञात नहीं किया जा सकता परन्तु कुछ विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि इस कार्दमक राजवंश के काल में किसी महान् जैन मुनि के देह त्याग का वृत्तान्त है। इस अभिलेख की तिथि भी विवादास्पद है। परन्तु उसे चष्टन का प्रपौत्र, जयदामन का पौत्र और अनाम व्यक्ति का पुत्र कहा गया है। यदि यह लेख रुद्रदामन का है तो इस अभिलेख का समय १५० ई. के पहले का होना चाहिए क्योंकि अन्य साक्ष्यों से रुद्रदामन का यही काल ठहरता है। इन विद्वानों का अनुमान है कि उक्त अभिलेख धरसेन की समाधिमरण की स्मृति में उत्कीर्ण किया गया है। परन्तु यहाँ द्रष्टव्य है कि उक्त अभिलेख में किसी मुनि का कोई नामोल्लेख नहीं है। यह निश्चित है कि यह अभिलेख जैन परम्परा से सम्बन्धित है परन्तु केवल अनुमान के आधार पर किसी विशिष्ट व्यक्ति या मनि से सम्बन्धित नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त दूसरे कुछ विद्वान् षट्खण्डागम को पाँचवीं-छठवीं शताब्दी की रचना मानते हैं। आचार्य पुष्पदन्त एवं आचार्य भूतबलि
आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि जैन परम्परा के सर्वाधिक प्रसिद्ध आचार्यों में से हैं। मेधासम्पन्न ये दोनों आचार्य धरसेन के पास षट्खण्डागम का अध्ययन करने के लिए गये थे और दोनों ने विनयपूर्वक षट्खण्डागम के दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक तत्त्वों का गम्भीर अध्ययन किया था।
जैन परम्परा के अनुसार आचार्य पुष्पदत्त एक श्रेष्ठि के पुत्र थे और आचार्य भूतबलि सौराष्ट्र के नहपान नामक नरेश थे। गौतमीपुत्र श्री शातकर्णी से पराजित होकर नहपान नरेश ने श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली और भूतबलि के नाम से विख्यात हुए। जैन-परम्परा से ज्ञात होता है कि आचार्य पुष्पदन्त का नाम कुछ और था और उनकी सुन्दर दंतपंक्ति को देखकर उनके गुरु धरसेन ने यह नामकरण किया।६
आचार्य श्रुतनन्दी के श्रुतावतार से स्पष्ट होता है कि पुष्पदन्त एवं भूतबलि