Book Title: Sramana 2010 07
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 49
________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० भारतीय कला में लक्ष्मी-श्रीवत्स का अन्तस्सम्बन्ध और अंकन डॉ. अयोध्या नाथ त्रिपाठी डॉ. निर्मला गुप्ता" [डॉ. अयोध्या नाथ त्रिपाठी एवं डॉ. निर्मला गुप्ता ने प्रस्तुत लेख में लक्ष्मी और श्रीवत्स के पारस्परिक अन्तस्सम्बन्धों की पृष्ठभूमि में भारतीय कला में इनके अंकन की विवेचना की है। साथ ही ऐतिहासिक दृष्टि से श्रीवत्स के विकास, उसके बहुविध अंकन, साहित्यिक-पुरातात्त्विक सन्दर्भो तथा स्वरूपगत विकास को भी अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है।] 'प्रतीक' हमारी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर हैं। धार्मिक विचार और कर्मकाण्डीय विधि के रूप में मंगल प्रतीक आज समाज के हर स्तर पर व्याप्त हो गए हैं, बड़े और छोटे सभी उनकी ओर आकृष्ट हुए हैं। वस्तुतः इनका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के कष्टों का निवारण करना था। सम्पूर्ण-कला जगत् का सिंहावलोकन करने से यह तथ्य भी उभर कर सामने आता है कि प्राचीन काल से ही प्रतीकों में धार्मिक व दार्शनिक अभिप्राय का भी सनिवेश रहा है। देवी और देवताओं की प्रतिमाओं का लक्षण निश्चित करते समय धार्मिक प्रतीकों की आवश्यकता हुई। इसके लिए धार्मिक आचार्यों और शिल्पियों ने प्राचीन मांगलिक चिह्नों पर ध्यान दिया और उन्हें विभिन्न देव-मूर्तियों के लिए स्वीकार किया, जैसे- शंख, चक्र और पद्म को विष्णु की मूर्ति में, चक्र और पद्म को बुद्ध की मूर्ति में, चक्र, सिंह और श्रीवत्स को तीर्थंकर की मूर्ति में। लगभग प्रथम शती ई० से धार्मिक प्रतीक या चिह्न का यह नया रूप सामने आने लगा। आज प्रचलित सर्वाधिक प्रतीकों के अन्तर्गत मुख्यतया-मंगल विहग (प्रायः हंस), श्रीवत्स, स्वस्तिक, घट, मिथुन, पत्रवल्ली, प्रमथ, पूर्णघट, पत्रलता, फुल्लवल्ली, गंगा-यमुना, श्रीवृक्ष, चक्र, त्रिरत्न, दर्पण, परशु, भद्रासन, माला, चामर आदि की गणना की जाती है। इन्हीं कला-प्रतीकों में श्रीवत्स भी एक है और इसका अपना विशिष्ट महत्त्व है। * एसोसिएट प्रोफेसर प्राचीन इतिहास विभाग, एम.डी.पी.जी. कालेज, प्रतापगढ़। ** असिस्टेन्ट प्रोफेसर प्राचीन इतिहास विभाग, पी.जी. कालेज, पट्टी, प्रतापगढ़।

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