________________
पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : ३७ दोनों आचार्यों ने शिक्षा ग्रहण कर वर्षावास समाप्त होने पर दक्षिण की ओर प्रस्थान किया और दोनों करहाटक पहुँचे।४७ करहाटक को कुछ विद्वान् महाराष्ट्र के सतारा जिले के आधुनिक कर्हाट से समीकृत करते हैं जबकि कुछ विद्वान् महाराष्ट्र के कोल्हापुर से। जो कुछ भी हो यह नगर उस समय विद्या का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। जहाँ तक साहित्यिक अवदान का प्रश्न है दिगम्बर साहित्य रचना के क्षेत्र में पुष्पदन्त एवं भूतबलि का अवदान सबसे महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने षट्खण्डागम के प्रारम्भिक वीसदिसुत्त के अन्तर्गत सतप्ररूपणा के १७७ सूत्रों का निर्माण किया। इनके कार्यों को आगे बढ़ाते हुए आचार्य भूतबलि ने वीसदि सुत्त के सूत्रों सहित ६ हजार सूत्रों में ५ विशाल खण्डों का निर्माण किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने महाबन्धक नामक छठे खण्ड के तीस हजार सूत्र और रचे। इससे स्पष्ट है कि षट्खण्डागम के प्रारम्भिक सूत्रों की रचना आचार्य पुष्पदन्त ने और अवशिष्ट सूत्रों की रचना आचार्य भूतबलि ने की। यहाँ यह ध्यातव्य है कि षट्खण्डागम के ६ खण्डों में ४० हजार श्लोक हैं। अन्तिम छठा खण्ड महाबन्ध के नाम से प्रसिद्ध है और यह अकेले तीस हजार श्लोक में निबद्ध है। महाबन्ध का दूसरा नाम महाधवला भी है। ____जहाँ तक दोनों आचार्यों के समय का प्रश्न है, परम्परागत स्रोतों के अनुसार दोनों आचार्यों का अधिकांश समय साथ-साथ बीता था। दोनों ने एक साथ दीक्षा ली थी और साथ ही आचार्य धरसेन से शिक्षा ग्रहण की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्पदन्त, भूतबलि से आयु में बड़े थे क्योंकि षट्खण्डागम धवलाटीका में आचार्य वीरसेन ने मंगलाचरण के सन्दर्भ में पुष्पदन्त की पहले वन्दना की है। नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली में भी आचार्य धरसेन के बाद पुष्पदन्त और इसके बाद भूतबलि का नाम आता है। इस पट्टावली में आचार्य पुष्पदन्त का काल ३० वर्ष और भूतबलि का काल २० वर्ष का माना गया है। इन पट्टावलियों के आधार पर पुष्पदन्त एवं भूतबलि का काल ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी माना गया है।८ । ___इस प्रकार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के इन आचार्यों की जीवनी एवं कार्यों को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जैन साहित्य को सुरक्षित रखने में तथा अपनी लेखनी द्वारा इनको समृद्ध बनाने में इनका कितना महत्त्वपूर्ण योगदान था। पश्चिम भारत में जैन धर्म के प्रचारप्रसार में इन आचार्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। पश्चिम भारत में जैन धर्म की दो-दो वाचनायें कर जैन धर्म को लोकप्रिय बनाने में इनका प्रयास सराहनीय