________________
श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१०
पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान (तृतीय शताब्दी ई. पू. से सातवीं शताब्दी तक)
ऋचा सिंह
[प्राचीन भारतीय साहित्य में पश्चिम भारत को प्रायः अपरन्त या अपरान्त के नाम से जाना जाता था। यद्यपि उसकी सीमा सर्वथा अनिश्चित थी। ग्रन्थों में हमें महरट्ठ एवं गुर्जर शब्द भी प्राप्त होता है जिसका सम्बन्य निश्चित रूप से महाराष्ट्र एवं गुजरात से था, परन्तु इनकी भी राजनीतिक सीमा का निर्धारण नहीं किया जा सकता क्योंकि वे हमेशा घटती-बढ़ती रहती थीं। यहाँ पश्चिम भारत से तात्पर्य भारत के पश्चिमी भाग में स्थित वर्तमान मुख्य तीन प्रदेशों-राजस्थान, गुजरात एवं महाराष्ट्र से है। (इन प्रदेशों का सृजन एवं इनकी राजनीतिक सीमा का निर्धारण २०वीं शताब्दी के छठे दशक में किया गया)। यहाँ अवलोकनीय है कि इन प्रदेशों में जैन धर्म ईसा पूर्व की प्रारम्भिक शताब्दी में ही पहुँच गया था। अनुकूल परिस्थितियों के कारण जैन धर्म यहाँ निरन्तर पल्लवित एवं पुष्पित होता रहा तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में उसने अपना महत् योगदान दिया। प्रस्तुत शोध-लेख में इन तीनों प्रदेशों के जैनाचार्यों द्वारा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी तक के साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को रेखांकित किया गया है।]
साहित्य के क्षेत्र में जैन आचार्यों का योगदान अतीव प्रशंसनीय रहा है। प्राचीनकाल से ही उन्होंने विद्या के क्षेत्र में अपनी लेखनी चलाई और उसमें प्रवीणता प्राप्त की। हमें अंग-उपांग-प्रकीर्णक-नियुक्ति-भाष्य एवं चूर्णि के रूप में एक विशाल साहित्य प्राप्त होता है। यद्यपि जैन ग्रन्थों में इसके 'पूर्व' के भी साहित्य का वर्णन प्राप्त होता है और उन्हें इसी कारण 'पुव्व' या 'पूर्व' साहित्य कहा गया और यह माना गया कि महावीर के पूर्व भी इनका अस्तित्व था और उसमें महावीर के पूर्व के तीर्थंकरों के उपदेश थे। जैन ग्रन्थों के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि आचार्य भद्रबाहु प्रथम (जिनको सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का समकालीन माना जाता है) अन्तिम चतुर्दश पूर्वधारी थे। उनके शिष्य स्थूलभद्र को चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान तो था, परन्तु वे उनमें से केवल १० पूर्वो की ही अर्थ-सहित व्याख्या कर सकते थे, और * शोध छात्रा—प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, का.हि.वि.वि.।