Book Title: Sramana 2010 07
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ २२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० सुखलालजी या ए०एन० उपाध्ये जैसे विद्वान् कहाँ हैं? जो कुछ विद्वान् विश्वविद्यालयों के जैन दर्शन या प्राकृत विभाग में हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर, वे व्यापक एवं तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता को पूरा नहीं करते हैं। अब पं० सुखलाल जी या पं० नाथूराम जी प्रेमी, प्रो. एस० मुखर्जी, टाटिया जी, उपाध्ये जी वाली पीढ़ी समाप्त हो गई है, उसके बाद पं० कैलाशचंद जी आदि की पीढ़ी भी नहीं रही। आज जो आठ-दस स्तरीय विद्वान् हैं वे भी जीवन के अन्तिम चरण में हैं। नयी पौध से ही हम सभी को उपर्युक्त आवश्यकता पूरी करनी होगी। किन्तु इसके लिए तो त्याग और समर्पण अपेक्षित है। आज प्रतिभाएं तो अवश्य हैं, उनकी कमी नहीं है- किन्तु उनका विनियोग इस दिशा में कैसे हो? यह विचारणीय है। ___ अन्य परम्परा के जो विद्वान् जैन संस्थानों में कार्यरत हैं, वे मूलत: अपनी आजीविका के कारण जुड़े हुए हैं। चूँकि कोई भी जैन संस्थान अपने कर्मचारियों / विद्वानों को मानक के अनुसार वेतन देने में समर्थ नहीं है अत: उन अजैन विद्वानों में अधिकांश तो अल्प वेतनभोगी होते हैं, अत: भविष्य की असुरक्षा के कारण उनमें विषय के प्रति निष्ठा का प्रायः अभाव होता है। यह एक कटु सत्य है कि जैन विद्या के संस्थानों के व्यवस्थापक गण चाटुकार या भविष्य के सुनहले सपने दिखाने वाले या जोड़-तोड़ करने में समर्थ लोगों के चक्कर में आ जाते हैं और बाद में पछताते हैं। ___जो जैन विद्वान् इन संस्थानों से जुड़े हैं, उनमें भी जो जिस परम्परा से हैं, वे उसी परम्परा के ग्रन्थों के विशेष ज्ञाता होते हैं। अन्य परम्परा के ग्रन्थों की अध्ययनवृत्ति प्रायः नहीं होती है, अत: उनमें सम्प्रदाय निरपेक्ष तुलनात्मक या समीक्षात्मक दृष्टि का अभाव होता है, इस स्थिति में शोधकार्य साम्प्रदायिक संकीर्णता से मुक्त नहीं होता। अधिकांश मूलग्रन्थ या तो अप्रकाशित हैं और जो प्रकाशित हुये भी हैं उनमें भी अधिकांश आज न बाजार में उपलब्ध हैं और न पुस्तकालयों में ही। कहीं-कहीं वैयक्तिक संग्रह में हैं भी तो शोधार्थी को उनका पता नहीं चलता है। जिन व्यावसायिक पुस्तक प्रकाशकों ने मूलग्रन्थों या उनके द्वितीय संस्करणों का प्रकाशन किया है उनके मूल्य इतने अधिक हैं कि सामान्य अध्येता क्रय करने में कठिनाई अनुभव करता है। कुछ स्तरीय ग्रन्थ विदशों में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुये हैं किन्तु उनका डालर या पौण्ड का मूल्य इतना है कि सामान्य व्यक्ति तो क्या, शोध संस्थानों को भी उसे खरीदने

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130