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२० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१०
भारत में विश्वविद्यालयों के केन्द्रीय पुस्तकालयों की स्थिति एवं व्यवस्थाएँ ऐसी नहीं हैं जिनके आधार पर जैन विद्या के स्तरीय शोध का कार्य सम्पन्न हो सके।
जहाँ तक जैन विद्या से सम्बन्धित शोध-संस्थानों का प्रश्न है निश्चय ही पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, लालभाई दलपतभाई इंस्टिट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, अहमदाबाद; भोगीलाल लहेरचंद विद्या मंदिर, दिल्ली; जैन विश्व भारती, लाडनूं, कुन्दकुन्द विद्यापीठ नई दिल्ली, वर्णी शोध-संस्थान, वाराणसी आदि के ग्रन्थालय किसी सीमा तक सक्षम माने जा सकते हैं। वर्तमान में कैलाशसागर सूरि ज्ञान भंडार, कोबा को भी शोध हेतु एक समृद्ध पुस्तकालय के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। अधिकांश पुस्तकालयों में या तो उनकी स्थापना के पूर्व प्रकाशित साहित्य का अभाव है या फिर वर्तमान में प्रकाशित होने वाले साहित्य का सम्यक रूप से क्रय न होने के कारण भी वे पुस्तकालय सम्पूर्ण नहीं कहे जा सकते। लालभाई दलपत भाई भारतीय विद्या मंदिर, अहमदाबाद; कैलाश सागर ज्ञान भंडार, कोबा; भोगीलाल लहेरचंद विद्या मंदिर दिल्ली आदि में प्राचीन हस्तप्रतें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। इसी प्रकार वैयक्तिक एवं संस्थागत संग्रहालयों जैसे- अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर; जैन ज्ञान भंडार जैसलमेर; हेमचन्द्र ज्ञान भंडार, पाटन, तथा आगम संस्थान, उदयपुर तथा खम्भात, बीकानेर, आदि में भी हस्तप्रतों की पर्याप्त सख्या है, किन्तु जैसलमेर, पाटन आदि को छोड़कर कहीं भी व्यवस्थित रूप से सूचीकरण और यथास्थान हस्तप्रतों की उपलब्धता नहीं होने से उनका उपयोग कर पाना अतिकठिन है। जैन विद्या से सम्बन्धित कुछ ग्रन्थालयों में पुस्तकें तो हैं किंतु उनका व्यवस्थित सूचीकरण और कार्ड-सिस्टम नहीं होने से शोधार्थियों को पर्याप्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दूसरे, कोबा को छोड़कर जैन विद्या से सम्बन्धित शोध संस्थानों और पुस्तकालयों में पुस्तकों का सूचीकरण कम्प्यूटर पर नहीं होने से ग्रन्थ नाम, लेखक नाम, प्रकाशक नाम तथा विषय नाम के आधार पर पुस्तकों को देखने की व्यवस्था नहीं है। अब तो हम सी०डी० और इन्टरनेट के युग में प्रवेश कर चुके हैं। यदि सम्यक् प्रकार से विभिन्न पुस्तकालयों के ग्रन्थों का सूचीकरण हो जाये तो इंटरनेट के आधार पर कोई भी पुस्तक देश के किसी भी कोने में या किसी भी पुस्तकालय में हो, उसकी जानकारी प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार यदि जैन विद्या के क्षेत्र में शोध को स्तरीय बनाना है, तो हमें युग के अनुरूप अपनी व्यवस्थाओं को सम्यक् स्वरूप देना होगा। यद्यपि जब तक इस दिशा में संयुक्त प्रयत्न नहीं होगा तब तक यह कार्य भी संभव