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जैन-विद्या के शोध-अध्ययन तथा शोध केन्द्र :एक समीक्षा : २१
नहीं होगा। (५) शोधार्थियों की स्थिति
शोध के क्षेत्र में दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण कठिनाई यह है कि जैन धर्म दर्शन पर कार्य करने वाले अधिकांश छात्र प्राकृत या संस्कृत भाषा से परिचित नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति में वे द्वितीयिक संदर्भो से ही अपना काम चलाते हैं जबकि स्तरीय शोध के लिए संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का अध्ययन आवश्यक है। अधिकांश जैन साहित्य इन्हीं भाषाओं में लिखा गया है। दूसरे, जो लोग जैन धर्म दर्शन के क्षेत्र में तुलनात्मक दृष्टि से शोधकार्य करना चाहते हैं उनके लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान भी आवश्यक है क्योंकि पाश्चात्य धर्म-दर्शन और विश्वसाहित्य के अधिकतर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ आज अंग्रेजी भाषा में ही उपलब्ध हैं। अंग्रेजी भाषा के ज्ञान का अभाव विश्वसाहित्य और समकालीन शोध प्रवृत्तियों को समझने में बाधक है। इसी प्रकार जो जैन दर्शन को विज्ञान के संदर्भ में समझना चाहते हैं उनके लिए जहाँ एक ओर आधुनिक विज्ञान का सम्यक् अध्ययन आवश्यक है वहीं दूसरी ओर जैन धर्म-दर्शन के मूल ग्रन्थों का अध्ययन भी आवश्यक है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि आज जो जैन विद्या के मूल ग्रन्थों के गहन अध्येता हैं वे समकालीन ज्ञान की इन विधाओं से अपरिचित हैं तो दूसरी ओर जो लोग समकालीन विज्ञान से परिचित हैं, वे मूल ग्रन्थों से अपरिचित हैं। इस क्षेत्र में दूसरी कठिनाई यह है कि कभी-कभी हमारे धार्मिक विश्वास भी इस अध्ययन में बाधक बनते हैं। इस संदर्भ में मेरा दृष्टिकोण यह है कि जो तथ्य आधुनिक विज्ञान के द्वारा सिद्ध हो चुके हैं और जो जैन दर्शन में पूर्व से उपस्थित हैं, उनका तुलनात्मक अध्ययन कर हमें उन्हें प्रकाश में लाना चाहिए। साथ ही जिनके विज्ञान सम्मत विधि से सिद्धि की सम्भावना हो उन पर शोध करना चाहिए
और जिनका विज्ञान सम्मत विधि से सिद्ध होना कठिन है, उन्हें परम्परागत मान्यता के रूप में स्वीकार कर उन पर बल नहीं देना चाहिए। (६) योग्य मार्ग-दर्शकों की समस्या
आज जो भी सक्रिय शोध संस्थान हैं, उनमें कुछ को छोड़कर प्राय: सभी में जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वानों का अभाव है। मार्गदर्शक के लिए यह आवश्यक है कि एक ओर वह जैन विद्या के सभी पक्षों का तथा उनके मूल ग्रन्थों का ज्ञाता हो, दूसरी ओर अन्य परम्पराओं के धर्म-दर्शन, इतिहास आदि का भी ज्ञाता हो। आज ऐसे विद्वानों का प्रायः अभाव है। आज पं०