Book Title: Sramana 2010 07
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 28
________________ पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : २७ अध्यक्ष थे। इसका समय कहीं वीर निर्वाण ९८० और कहीं ९९३ बताया गया है' अर्थात् ५१२ ई. अथवा ५२५ ई. में यह महान् कार्य सम्पन्न हुआ था। सम्भवतया यह तीसरी वाचना वलभी के मैत्रक राजवंश के राजा ध्रुवसेन के काल में हुई। यहाँ द्रष्टव्य है कि किसी भी जैन साक्ष्य में ध्रुवसेन अथवा मैत्रक वंश के न तो किसी नरेश का नामोल्लेख है और न ही मैत्रक राजवंश के किसी साक्ष्य में इस वाचना अथवा जैन धर्म के प्रति उनके अनुराग का कोई उल्लेख है, परन्तु ऐतिहासिक साक्ष्य हमें इसी काल में वाचना आयोजित होने की ओर संकेत करते हैं। देवर्द्धिगणि का यह कार्य अत्यन्त वैज्ञानिक था। वे पूर्व में हुई वाचनाओं से परिचित थे। अपने काल से कुछ ही समय पूर्व हुई नागार्जुनीय एवं स्कन्दलीय वाचना की कमियाँ उन्हें ज्ञात थीं। दोनों के पाठ भेद में समानता नहीं थी। चूँकि दोनों आचार्यों का प्रत्यक्ष मिलन नहीं हो पाया था, अतः इन दोनों वाचनाओं में भी कुछ भेद स्थायी रूप से रह गया था। कथावली में दोनों वाचनाओं के मतभेद स्पष्ट रूप से वर्णित हैं। देवर्द्धिगणि ने वैज्ञानिक पद्धति को प्रश्रय दिया। उन्होंने वाचनाकार आचार्य स्कन्दिल की वाचना को प्रमुखता प्रदान की तथा नागार्जुनीय वाचना को पाठान्तर के रूप में स्वीकार कर दोनों को सम्मानजनक स्थान प्रदान किया और जैन संघ को एक और विघटन से बचा लिया। नन्दीसूत्र इनकी ही रचना मानी जाती है।" १० पश्चिम भारत के जैन आचार्यों की श्रेष्ठ परम्परा में आचार्य मल्लवादी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनके भी प्रारम्भिक जीवन के बारे में अत्यल्प ज्ञान है। बचपन से ही बहुत तेजस्वी थे। प्रभावकचरित एवं प्रबन्धकोश से इनके बाल्य जीवन पर किंचित् प्रकाश पड़ता है। प्रभावकचरित में इनकी जन्मभूमि वलभी बताई गई है। १° इसी प्रकार यदि प्रबन्धकोश के सन्दर्भों पर विश्वास किया जाए तो उनकी माता दुर्लभदेवी वलभी नरेश शिलादित्य की भगिनी थी११ और इस प्रकार मल्लवादी क्षत्रिय कुल के ठहरते हैं। यद्यपि इन सन्दर्भों को पुष्ट करने के लिए हमारे पास कोई और साक्ष्य नहीं है। किन्तु ऐसा कहा जाता है कि भृगुकच्छ में उनके गुरु को जो उनके मामा भी थे, नन्द नामक एक बौद्ध आचार्य ने शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। १२ अपने गुरु के पराभव का बदला लेने के लिए मल्लवादी स्वयं भृगुकच्छ गये और उस बौद्ध भिक्षु को पराजित किया। यह शास्त्रार्थ छः महीनों तक चलता रहा। अन्त में विजयश्री मल्ल को मिली। इस विजय के उपलक्ष्य में उनको वादी की

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