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प्रायश्चित्त तप क्यों : ११
सकता है। आगमों में जो अपराध का प्रायश्चित्त बतलाया है वह सामान्य कथन है। इसका निर्णय सद्गुरु या आचार्य करता है। हम प्रायश्चित्त के आगम ग्रन्थ पढ़कर स्वयं प्रायश्चित्त नहीं ले सकते हैं। गुरु के अभाव में आप भले स्वयं प्रायश्चित्त कर लें परन्तु यथावसर गुरु से सही-सही बतलाएं तथा गुरु जो कहे तदनुसार करें। आचार्य यदि स्वयं व्रतों में दोष लगाता है तो उसे बड़ा प्रायश्चित्त करना पड़ता है। दोषों की शद्ध कैसे होगी? इसका विवरण आगमों में विस्तार से दिया गया है।१२ सन्दर्भ-ग्रन्थ १. अनगार धर्मामृत ५.४५ २. अनगार-धर्मामृत ५.४६ ३. मूलाचार, गाथा ३६३ ४. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, सूत्र ९.२२ ५. आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेद-परिहारोपस्थापना। ६. अनगार-धर्मामृत, संस्कृत टीका ७.३७ ७. अनगारधर्मामृत ७.५७ ८. देखें, वही ७.५९। ९. 'मल' में ६ मास से अधिक की दीक्षा का छेद होता है और 'छेद' में ५ अहोरात्र
से ६ मास तक की दीक्षा-छेद है। इस तरह 'मूल' चिरघाती है और 'छेद'
सद्य:घाती है। -बृहत्कल्पभाष्य ७११ १०. मूलाचार (५.३६२) में मूल प्रायश्चित्त उसे कहा है जिसमें पुन: व्रत दिए जायें
अर्थात् पुन: दीक्षा देना।
अनवस्थाप्य- दीक्षा से हटाने के बाद तत्काल पुन: दीक्षा न देना। कुछ अवधि
तक परीक्षण करने के बाद आचार्य व संघ की अनुमति मिलने पर दीक्षा देना। ११. पारश्चिक यह परिहार का ही भेद है। परिहार के तीन भेद हैं। निजगण
अनुपस्थान, २. सपरगणोपस्थान और ३. पारश्चिक। तीनों भेदों में संघ से निष्कासन मुख्य है। तीर्थंकर गणधर आदि की आशातना करने पर यह दण्ड दिया जाता है। अभिधान राजेन्द्रकोश में इसका विस्तार से वर्णन है- अनगार० ५९
संस्कृत टीका। १२. व्यवहार, जीतकल्पसूत्र आदि प्रायश्चित्त प्रधान ग्रन्थ, तत्त्वार्थसूत्र ९.२२ तथा
इसकी टीकाएँ। लाटीसंहिता ७.८२, प्रवचनसारोद्धार ९२/७५०, मूलाचार १०३३ । ५.३६३, व्यवहारभाष्य, गाथा. ५३, अनगार० ७.३७, स्थानांगसूत्र, मधुकरमुनि टीका १०.७३
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