Book Title: Sramana 2010 07
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 11
________________ १० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० की दीक्षा-अवधि को दोष के अनुसार कम (पक्ष, दिवस, मास, वर्ष का छेद) कर दे उसे छेद प्रायश्चित्त कहते हैं। इसके फलस्वरूप साधु की वरिष्ठता (ज्येष्ठता पूज्यता) कम हो जाती है और तब उसे उन साधुओं को भी नमस्कार करना पड़ता है जो पहले उसे नमस्कार करते थे और अब ज्येष्ठ हो गए हैं। 'दीक्षा की अवधि कितनी कम की गई है?' इस पर ही ज्येष्ठता-कनिष्ठता बनती है। जैसे किसी दस वर्ष के दीक्षित साधु की यदि दीक्षा-अवधि पाँच वर्ष कम कर दी जाती है तो उसे पाँच वर्ष से एक दिन भी अधिक दीक्षित साधु को नमस्कार करना होगा। (८) परिहार (पृथक्करण)- दोष के अनुसार कुछ समय (पक्ष, मास आदि) के लिए संघ से बाहर कर देना और उससे कोई सम्पर्क न रखना परिहार प्रायश्चित्त है। (९) उपस्थापना (पुनर्वतारोपण या पुनर्दीक्षा)- महाव्रतों के भंग होने पर पुरानी दीक्षा पूरी तरह समाप्त करके पुनः नए सिरे से दीक्षित करना। 'छेद' में पूरी दीक्षा समाप्त नहीं की जाती है। ___अंतिम दो (परिहार और उपस्थापन) के स्थान पर तीन (मूल', अनवस्थाप्य और पारश्चिक १) प्रायश्चित्त के भेद मिलने से कुछ ग्रन्थों में दस भेद भी गिनाए हैं। 'किस दोष के होने पर कौन सा प्रायश्चित्त लेना पड़ता है' इसका वर्णन व्यवहार, जीतकल्पसूत्र आदि प्रायश्चित्त के प्रतिपादक ग्रन्थों में मिलता है। दोष के अनुसार गृहस्थ जीवन में भी ये प्रायश्चित्त देखे जाते हैं। जैसे, कान पकड़ो, माफी मांगो, आज का खाना बन्द, घर से या शहर से बाहर निकालना, जाति बहिष्कार करना, छात्रों को छात्रावास सुविधा से वंचित करना, परीक्षा-फल रोक देना, स्कूल से कुछ समय या सदा के लिए निकाल देना, कुछ समय बाद पुन: प्रवेश दे देना, आदि। इस तरह प्रायश्चित्त के ९ अथवा १० भेद हैं। यह प्रायश्चित्त देश, काल, शक्ति, काय, संयम-विराधना आदि की अपेक्षा अनेक प्रकार का तथा लघु अथवा बृहत् होता है। जैसे पञ्चेन्द्रिय पशु-पक्षि आदि की विराधना से मनुष्य जाति की विराधना अधिक दोषजनक है। देश-काल आदि की परिस्थितियों तथा अपराधी की योग्यता अथवा संयम की स्थिति के अनुसार प्रायश्चित्त भी छोटा-बड़ा होता है। अत: एक ही अपराध का प्रायश्चित्त अलग-अलग हो

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