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१६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १०
जैन विद्या में शोध-कार्य की दृष्टि से प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। एक समय था जब यह संस्थान शोध-कार्य में सिरमौर बना हुआ था, किन्तु डॉ० गुलाब चन्द जी और डॉ० नथमलजी टाटिया के बाद इसे निदेशक के रूप में अधिकृत विद्वान् उपलब्ध नहीं ही सके, साथ ही साथ बिहार - शासन की उपेक्षा और बिहार में गिरते हुए शिक्षा-स्तर के परिणाम स्वरूप आज यह संस्थान जैन विद्या के क्षेत्र में वह गरिमा सुरक्षित नहीं रख पाया है। जहाँ तक देवकुमार जैन प्राच्य शोध संस्थान, आरा के शोध केन्द्र का प्रश्न है तो यह संस्था मुख्यतः एक परिवार विशेष पर आश्रित होने के कारण अर्थाभाव से गुजर रही है।
नवोदित जैन विद्या के शोध केन्द्र के रूप में जैन विश्वभारती, लाडनूं निश्चय ही प्रगति की दिशा में अग्रसर है। विश्वविद्यालय का स्वरूप प्राप्त हो जाने के कारण और तेरापंथ धर्मसंघ की सक्रियता के परिणामस्वरूप निश्चय ही इसके उज्ज्वल भविष्य की कल्पनाएँ की जा सकती हैं। यहाँ से कई जैन साधु-साध्वी और जैन विद्या में रुचि रखने वाले छात्र इससे पंजीकृत होकर अपना शोध-कार्य कर रहे हैं और आज इसमें पंजीकृत शोध छात्रों की संख्या सर्वाधिक है। इसका सर्वाधिक लाभ तेरापंथ धर्मसंघ का समणी वर्ग एवं कुछ श्वेताम्बर साध्वियाँ ही उठा रही हैं और उनका शोध का स्तर भी मानक है। किंतु इस संस्थान में प्रो० नथमलजी टाटिया के अवसान के पश्चात् डॉ० कमलचंद जी सोगानी, डॉ० दयानन्द भार्गव को छोड़कर जैन विद्या का ऐसा कोई बहुश्रुत विद्वान् नहीं जुड़ पाया जिससे इसके अधीन होने वाले शोधकार्य अधिक गम्भीर बन सके। अब समणी मंगल प्रज्ञा जी ने इसे सम्हाला है।
जहाँ तक मेरे निर्देशन में कार्यरत प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर का प्रश्न है, विगत दस वर्षों में इस संस्था ने अच्छी प्रगति की है। इसके अधीन लगभग बीस विद्यार्थियों ने जैन विद्या में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की है तथा बारह ने पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की है। वर्तमान में भी लगभग दस शोधार्थी कार्यरतं हैं, किन्तु यह संस्था भी मात्र एक वैयक्तिक प्रयास ही है जिसके कारण इसकी अपनी सीमाएं हैं और मेरे पश्चात् इसकी क्या स्थिति होगी यह भविष्य के ही गर्भ में है। इसी प्रकार कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर विगत कई वर्षों से कार्यशील है, किन्तु इसके अधीन अधिक शोध छात्र निकले हों ऐसी मेरी जानकारी नहीं है । इतना अवश्य है कि अपने पुस्तकालय एवं