Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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( १० )
मार्तण्डकी रचना १०७० से १११० के बीचमें हुई होगी । तथा अनन्तवीर्याचार्यने प्रमेयकमलमार्तण्डका समीचीनरीतीसे अध्ययन कर तदनन्तर प्रमेयरत्नमाला बनाई है। अतः प्रमेयरत्नमालाकार उनके उत्तरवर्ती तथा सिद्धान्तसारसङग्रहकर्तासे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं ।
नरेन्द्रसेनाचार्यका प्रतिष्ठादीपक ।
नरेन्द्रसेनाचार्यने ' सिद्धान्तसारसङ्ग्रह ' तथा ' प्रतिष्ठादीपक ' ऐसे दो ग्रन्थ रचे हैं । प्रतिष्ठादीपकके अन्त में ' इति श्रीपण्डिताचार्यश्री नरेन्द्रसेनाचार्यविरचितः प्रतिष्ठादीपकः समाप्तः ऐसा उल्लेख है । तथा-
सर्वग्रन्थानुसारेण संक्षेपाद्रचितं मया । प्रतिष्ठादीपकं शास्त्रं शोधयन्तु विचक्षणाः ॥ ग्रन्थारम्भ में मंगल श्लोक इस प्रकार है-
विश्वविश्वम्भराभारधारिधर्मधुरन्धरः । देयाद्वो मङ्गलं देवो दिव्यं श्रीमुनिसुव्रतः ॥ नमस्कृत्य जिनाधीशं प्रतिष्ठासारदीपकम् । वक्ष्ये बुद्धयनुसारेण पूर्वसूरिमतानुगम् ॥
इस प्रतिष्ठासारदीपक में जिनमूर्ति, जिनमंदिर आदिकोंके निर्माण में तिथि, नक्षत्र, योग आदिकका विचार करना चाहिये ऐसा कहकर किस तिथ्यादिकोंमें इनकी रचना करने से रचयिताका शुभाशुभ होता है इत्यादि वर्णन किया है । यह ग्रन्थ साडेतीनसौ श्लोकोंका है । इस ग्रन्थके अन्त में प्रशस्ति नहीं है । इस ग्रन्थ में स्थाप्य, स्थापक और स्थापना ऐसे तीन विषयोंका वर्णन हैं । पञ्चपरमेष्ठी तथा उनके पञ्चकल्याण और जो जो पुण्यके हेतुभूत हैं वे स्थाप्य हैं । यजमान इन्द्र स्थापक हैं। मंत्रोंसे जो विधि की जाती है उसे स्थापना कहते हैं । तीर्थंकरोंके पञ्चकल्याण जहां हुए हैं ऐसे स्थान तथा अन्य पवित्रस्थान, नदीतट, पर्वत, ग्राम, नगरादिकोंके सुंदरस्थानमें जिनमंदिर निर्माण करने चाहिये ।
आरंभसे हिंसा होती है, हिंसासे पाप लगता है, तोभी जिनमंदिर बान्धने में किये जानेवाले आरंभ से महापुण्य प्राप्त होता हैं, जिनधर्मकी स्थिति जिनमंदिरके विना नहीं रहती । तथा जिनमंदिर मुक्तिप्रासादमें प्रवेश करने में सोपानके समान सहायक है । अतः जिनमंदिर की रचना करनी चाहिये ऐसा हेतु आचार्यने प्रदर्शित किया है । वे ऐसा कहते हैं
यद्यप्यारम्भतो हिंसा हिंसायाः पापसम्भवः । तथाप्यत्र कृतारम्भो महत्पुण्यं समश्नुते ।। निरालम्बनधर्मस्य स्थितिर्यस्मात्ततः सताम् । मुक्तिप्रासादसोपानमाप्तैरुक्तो जिनालयः ॥
इस प्रतिष्ठा ग्रन्थकी रचना देखनेसे आचार्य ज्योतिःशास्त्र में निष्णात थे ऐसा सिद्ध होता है । अस्तु ।
प्रस्तुत सिद्धान्तसारसंग्रहकी प्रेसकापी, अनुवाद, संशोधन आदि दो प्रतियोंसे किया है । एक प्रति यहां गुरुकुल के पुस्तकालय में थी । तथा दुसरी आमेर भाण्डारमें थी । दोनो प्रतियाँ प्रायः शुद्ध हैं ।
यदि अनुवादमें जहां कहीं प्रमादवश दोष लग गया हो उसे सुधार लेनेकी व सूचना देनेकी मैं विद्वान् पाठकोंसे प्रार्थना करता हूं ।
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