Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 16
________________ इसमें बाण और इन्द्रियशब्द पांच अंकके वाचक हैं, ब्योमशब्द शून्यका तथा सोमशब्द एक अंकका। अत: धर्मरत्नाकर ग्रन्थ वि. सं. १०५५ में रचा है ऐसा सिद्ध होता है। इसके पश्चात् उक्त तीन आचार्यों अर्थात् ब्रह्मसेन, वीरसेन और गुणसेनका काल यदि हम १०० वर्षभी मानले तो नरेन्द्रसेनाचार्यका काल लगभग वि. सं. ११५० सिद्ध होता है। सिद्धांतसारके अन्तःपरीक्षणसेभी उसकी रचनाका यही काल सिद्ध होता है । इस ग्रन्थमें · शब्दकी नित्यता, वेदकी अपौरुषेयता, केवलिकवलाहार, स्त्रीमुक्ती, ईश्वरका सृष्टिकर्तृत्व आदिविपयोंके खण्डनमें प्रभाचन्द्राचार्य तथा अनन्तवीर्याचार्यद्वारा दी हुई युक्तियोंका आश्रय लिया गया है । उसके कुछ उदाहरण-- १) देवैर्दीप्तगुणैर्विचार्य विविधवत्सड्याततेः संग्रहात् । ( अनन्तवीर्याचार्य ) १) देवैर्दीप्तगुणैदृष्टमिष्टमत्राभिनन्दतु ( नरेन्द्रसेनाचार्य ) २) न चाध्यक्षमशेषज्ञविषयं, तस्य रूपादिनियतगोचरचारित्वात । सम्बद्धवर्तमानविषयत्वाच्च । न चाशेषवेदी संबद्धो वर्तमानश्च । न च सर्वज्ञसद्भावाविनाभाविकार्यलिङ्ग वा संपश्यामः । तज्ज्ञप्तेः पूर्व तत्स्वभावस्य तत्कार्यस्य वा तत्स्वभावाविनाभाविनो निश्चेतुमशक्यत्वात्। नाप्यागमात्तत्सद्भावः स हि नित्योऽनित्यो वा तत्सद्भावं भावयेत् । न तावन्नित्यः तस्य अर्थवाद रूपस्य कर्मविशेष संस्तवनपरत्वेन पुरुषविशेषावबोधकत्वायोगात् । अनादेरागमस्यादिमत्पुरुषवाचकत्वाघटनाच्च । नाप्यनित्य आगमः सर्वज्ञं साधयेत् । तस्यापि तत्प्रणीतस्य तन्निश्चयमन्तरेण प्रामाण्यानिश्चयादितरेतराश्रयत्वाच्च । प्रमेयरत्नमाला अ. ३ रा पृष्ठ ३३ २) वदन्त्यन्ये न सर्वज्ञो वीतरागोऽस्ति कश्चन । प्रमाणपञ्चकाभावादभावेन विभावितः ।। तथा ह्यध्यक्षतः सिद्धिः सर्वज्ञे नोपजायते । रूपादिनियतानेकविषयत्वेन तस्य च ॥ सम्बद्धवर्तमानत्वपरत्वान्नास्य साधकम् । तत्प्रत्यक्षमसंबद्धवर्तमानत्वतः सदा ॥ नैवानुमानतः सिद्धिः सर्वविद्विषया क्वचित् । यल्लिङ्गाल्लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानं प्रजायते ।। स्वभावकार्यरूपं वा न तल्लिङ्ग विलोक्यते । ततस्तस्य कुतः सिद्धिरनुमानुपपत्तिता ।। आगमादपि नो सिद्धिर्जायते सर्ववेदिनः। स च नित्यो ह्यनित्यो वा तत्स्वभावे विभावयेत।। नानित्योऽनादिरूपत्वादर्थवादप्ररूपणात् । आदिमत्पुरुषेणास्य वाचकत्वविरोधतः ।। तदुक्तानुक्तभेदाभ्यामनित्यो नास्य साधकः । अन्योन्याश्रयतस्तस्य प्रामाण्याभावतस्ततः।। -- सिद्धान्तसारसंग्रह अ. ४ पृष्ठ ८१-८२ हमने यहां एक विषयमेंही नरेन्द्रसेनाचार्य के पद्योंमें अनन्तवीर्याचार्यके उपर्युक्त गद्यांशका अनुकरण दिखाया है। इसी तरह वेदकी अपौरुषेयता आदिक विषयोंके विकल्पोंके खण्डनमण्डनमेंभी अनन्तवीर्याचार्यका अनुकरण स्पष्ट दिखाई देता है । अतः अनन्तवीर्याचार्यके उत्तरवर्ती ये नरेन्द्रसेनाचार्य हुए हैं ऐसा निश्चय अयुक्त नहीं है। श्रीप्रभाचन्द्राचार्य भोजराजाके राज्यमें अर्थात् धारानगरीमें रहते थे। उन्होंने भोजराजाके समयमें परीक्षामुख नामक ग्रन्थकी 'प्रमेयकमलमार्तण्ड ' नामक टीका रची है। भोजनृपका समय इतिहासज्ञोंने वि. सं. १०७० से १११० पर्यन्त माना है । अतः प्रमेयकमल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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