Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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शुक्लध्यानके पृथक्त्ववितर्क सविचार, एकत्ववितर्क अविचार, सूक्ष्मक्रियासंपाति, तथा समुच्छिन्नक्रिय ऐसे चार भेद हैं, पहिले दो भेद श्रुतकेवलीको होते हैं। उत्तर दो भेद सयोगकेवलीको तथा अयोगकेवलीको होते हैं। शुक्लध्यानके इन चार भेदोंका ग्रंथकारने विस्तारसे वर्णन किया है। इन चार ध्यानोंसे यथाख्यात चारित्रकी प्राप्ति होती है। यह चारित्र साक्षान्मोक्षका कारण है।
ज्ञानावरणादि आठ कर्मोका नाश होनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म घातिकर्म हैं। इनसे ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व तथा शक्तिका घात होनेसे इन्हें घातिकर्म कहते हैं। बन्धके कारणभूत मिथ्यात्वादिकोंका नाश होनेसे तथा संपूर्णतया कर्मनिर्जरा होनेसे मोक्ष होता है। उस समय शरीरोंका अभाव होकर अनन्तसौख्यादिक-भावयुक्त आत्मा बन जाता है। इस अवस्थाका कभीभी नाश नहीं होता।
इस अध्यायके अन्तमें समन्तभद्राचार्य के वचनोंकी प्रशंसा की है। आचार्यके वचन भव्योंको भ्रान्तिरहित करते हैं। उनके वचन सुननेवालोंको दो-तीन भवोंसे मुक्तिप्राप्ति होती है। तथा जो मन, वचन, कायसे भक्ति करता है उसे इच्छितसिद्धि शीघ्र होती है ।
बारहवे परिच्छेदमें प्रथमतः पंचपरमेष्ठियोंका स्वरूप लिखा है। तदनन्तर संक्षेपसे अनुप्रेक्षाओंका स्वरूप लिखा है। तदनन्तर ग्रन्थकारने पंडित-पंडितादि पांच मरणोंका उनके भेदप्रभेदोंके साथ विशदतया वर्णन किया है। पंडितपंडितमरण- क्षायिकज्ञानादि नवकेवललब्धियोंके धारक केवली इस मरणसे कर्ममुक्त होते हैं। पण्डितमरण- महाव्रत, समिति, गुप्तियोंके पालकमुनियोंको यह प्राप्त होता है। रत्नत्रयपरिणतबुद्धिको पण्डा कहते हैं। मुनियोंमें रत्नत्रयपरिणतबुद्धि होनेसे उनको पण्डित कहना योग्यही है। बालपण्डितमरण- संयतासंयतके मरणको बालपण्डित मरण कहते हैं। बालमरण- सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान ये दो गुण जिनमें हैं किन्तु जो सर्वथा चारित्ररहित हैं, उनको बाल कहते हैं। उनके मरणको बालमरण कहना चाहिये । बालबालमरण- मिथ्यादृष्टियोंके मरणको बालबालमरण कहते हैं। आवीचिमरणादि और भी भेद हैं। सब मिलकर सत्रह प्रकारके मरण हैं।
____ संन्यासमरणके विषयमें आचार्य नरेन्द्रसेन ऐसा कहते हैं-आयुष्यका क्षय होनेसे प्राणी मरता ही है। उस समय वह अधीर हो या धैर्यवान हो मरणसे अपनेको नहीं बचा सकता। इसलिये धैर्य धारण कर प्राणत्याग करनेसे उसके संसारदुःखका नाश होता है। संन्यास मरणके समय जो क्रियाकाण्ड किया जाता है उसके चालीस अधिकार हैं। उनका वर्णन अतिविस्तारसे शिवकोट्याचार्यने मूलाराधनामें किया है। परंतु उनके केवल यहां आचार्य नरेन्द्रसेनजीने नाम दिये हैं। उनके आधारसे आराधना की जानी चाहिये अन्यथा प्राणी मिथ्यात्वाराधनासे हीन हो जावेगा।
जब संयमको नष्ट करनेवाला असाध्य महाव्याधि उत्पन्न होता है, अतिशय भयंकर दुर्भिक्ष उत्पन्न होता है, अथवा निःप्रतीकार उपसर्ग होता है तब वह साधु सल्लेखनाके योग्य
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