Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 12
________________ (५) पुद्गलादि द्रव्योंको लोक कहते हैं उनको आश्रय देनेवाले आकाशको लोकाकाश कहते हैं । तथा जहां ये द्रव्य नहीं हैं केवल आकाशही है उसे अलोकाकाश कहते हैं । ऐसे आकाशद्रव्यके दो भेद हैं । धर्मादि द्रव्योंके गतिहेतुत्वादिक लक्षण कहकर उनके उपकारोंका वर्णन कर संसारी जीवको पहचाननेके हेतु जो प्राणापान हैं वे वायु अर्थात् पुद्गलद्रव्यके अवस्थाविशेष हैं यह बतलाया गया है । तदनन्तर आस्रवतत्त्वका वर्णन किया गया है । आत्मामें कर्मके आगमनको आस्रवतत्त्व कहते हैं । वह मन, वचन तथा कायके स्पंदन से होता । इस स्पन्दनको योग कहते हैं । और उससे प्राणिहिंसनादि अशुभ कार्य तथा देवपूजनादि शुभ कार्य होने से उनको क्रमसे अशुभयोग तथा शुभयोग कहते हैं । आस्रवके इन्द्रिय, कषाय, अविरति तथा क्रियाओंसे पांच, सोलह, बारा और पच्चीस ऐसे क्रमसे भेद होते हैं । कषायरहित जीवके आस्रवको ईर्यापथ और कषायसहित जीवके आस्रवोंको सांपरायिक कहते हैं । ज्ञानावरणादिक कर्मास्रवोंके विशेष कारणोंका वर्णन करनेके अनंतर बन्धतत्त्वका और संवरतत्त्वका संक्षेपसे वर्णन कर नौवा अध्याय समाप्त किया है । दशवे अध्यायमें सविपाका और अविपाका निर्जराका वर्णन है । संसारी प्राणी के आत्मप्रदेश के साथ बंधे हुए कर्मके निषेक प्रतिसमय उदयमें आकर अपना फल देकर खिर जाते हैं । उसको कालकृत निर्जरा अथवा सविपाका निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा चतुर्गतिके प्राणियोंको होती है । उस समय रागद्वेष उत्पन्न होनेसे नये कर्म बंधते हैं । दूसरी अविपाका निर्जरा वीतराग मुनियोंके कर्मका उदयकाल प्राप्त होनेके पूर्वही तपश्चरणसे होती है । इस निर्जराके समय आत्मा रागी, द्वेषी, मोही नहीं होता । तपश्चरणको उपक्रम कहते हैं । इसके प्रभाव से होनेवाली निर्जराको औपक्रमिकी निर्जरा कहते हैं । इसके अनन्तर तपकी निरुक्ति और उसके हेतु दिखाकर वृत्तिपरिसंख्यानादि बाह्य तपोंका वर्णन आचार्यने किया । तदनन्तर अभ्यन्तर तपोंमेंसे पहले प्रायश्चित्त तपका अतीव विस्तार से १५० श्लोकोंमें वर्णन किया है । यह प्रायश्चित्त तप मुनि, आर्यिका श्रावक तथा श्राविका दोषानुसार आचार्य के पास जाकर अपना दोष कह कर धारण करते हैं । काल, क्षेत्र आदिकी अपेक्षासे तथा तीव्र मन्दादि परिणामोंकी अपेक्षासे प्रायश्चित्त अनेक प्रकारसे न्यूनाधिक धारण करना पडता है । जो दोष मुनिसे हुआ वही दोष क्षुल्लक ऐलकसे होनेपरभी प्रायश्चित्त समान नहीं होता । दोष लगने से चारित्र नष्ट होता है। उसके नाशसे कर्मनाश नहीं होता । कर्मके सद्भावसे मुक्ति प्राप्त नही होती । अतएव दोष नाशार्थ मुनिवर प्रायश्चित्त तप करते हैं । कोई दोष कायोत्सर्ग से नष्ट होते हैं । जिनवन्दनाको जाते समय ईर्यापथशुद्धि में यदि असावधानता होगी तो कायोत्सर्ग से वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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