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( १२४) दूसरे विशेष अभिग्रहको धारण करता हो तो वह भावसे ३ उत्तरगुण श्रावक है । बारहव्रतमें एक, दो इत्यादि व्रत अंगीकार करे तोभी भावसे व्रतश्रावकपन होता है। यहां बारहव्रतके एकेक, द्विक, त्रिक, चतुष्क इत्यादिसंयोगसे द्विविध त्रिविध इत्यादि भंग तथा उत्तरगुण और अविरति रूप दो भेद मिलानेसे श्रावकव्रतके सब मिलकर तेरह सौ चौरासी करोड बारह लाख सत्यासी हजार दो सौ दो भंग होते हैं।
शंका:-श्रावकवत त्रिविधत्रिविध इत्यादि भंगोंका भेद क्यों नहीं सम्मिलित हुआ ?
समाधान:-श्रावक स्वयं पूर्व किया हुवा अथवा पुत्रादिकने किया हुवा आरंभिककार्यमें अनुमतिका निषेध नहीं कर सकता अतएव त्रिविध त्रिविध भंग नहीं लिया गया । प्रज्ञप्त्यादिग्रंथमें श्रावकको त्रिविधत्रिविध पच्चक्खाण भी कहा है, वह विशेषविधि हैं। यथाः-जो श्रावक दीक्षा लेने ही की इच्छा करता हो, परंतु केवल पुत्रादिसंततिका पालन करने ही के हेतु गृहवासमें अटक रहा हो वही त्रिविध २ प्रकारसे श्रावकप्रतिमाका अंगीकार करते वक्त पच्चखाण करे, अथवा कोई श्रावक स्वयंभूरमण समुद्रमें रहनेवाले मत्स्यके मांसादिकका किंवा मनुष्यक्षेत्रसे बाहर स्थूलहिंसादिकका किसी अवस्थामें पच्चखान करे तो वही त्रिविधर भंगेसे करे। इस प्रकार त्रिविधत्रिविधका विषय बहुत अल्प होनेसे वह यहां कहनेकी आवश्यकता न रखी। महाभाष्यमें भी कहा