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लज्जाइगारवेणं, बहुसुअमएण वावि दुच्चरिअं। जो न कहेइ गुरूणं, न हु सो आराहओ भणिओ ॥ १० ॥
अर्थः - जो पुरुष शर्म आदिसे, रसादिगारवमें लिपटा रहनेसे अर्थात् तपस्या न करने की इच्छाआदिसे अथवा मैं बहुश्रुतहूं ऐसे अहंकारसे, अपमानके भयसे अथवा आलोयणा बहुत आवेगी इस भयसे गुरुके पास अपने दोष कह कर आलोयणा न करे वह कदापि आराधक नहीं कहलाता।।
संवेगपरं चित्तं, काऊणं तेहिं तेहिं सुत्तेहिं । ___ सल्लाणुद्धरणविवा- गदंसगाईहिं आलोए ॥ ११ ॥
अर्थः-संवेग उत्पन्न करनेवाले आगमबचनोंको सूत्रोंका विचार करके तथा शल्यका उद्धार न करनेके दुष्परिणाम कहनेवाले सूत्र ऊपर ध्यान देकर अपना चित्त संवेग युक्त करना और आलोयणा लेना।
अब आलोयणा लेनेवालेके दश दोषोंका वर्णन करते हैं:आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता जं दिढं बायरं व सुहुमं बा । छन्नं सद्दाउलयं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ॥ १२ ॥
अर्थः- १ गुरु थोडी आलोयणा देंगे, इस विचारसे उनको वैयावच्च आदिसे प्रसन्नकर पश्चात् आलोयणा लेना, २
गुरु थोडी तथा सरल आलोयणा देनेवाले हैं, ऐसी १ के आलोयणा करना, ३ अपने जिन दोषोंको दूसरोंने देखे हो उन्हींकी आलोयण करना और अन्य गुप्त दोषोंकी न करना