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(७७७) गणधर पदकी स्थापना कराता है । वस्तुपालमंत्रीने भी एकवीस आचार्योंकी पदस्थापना कराई थी। दशवां द्वार
श्रीकल्पआदि आगम, जिनेश्वर भगवानके चरित्रआदि पुस्तकें न्यायोपार्जित द्रव्यसे शुद्ध अक्षरसे तथा उत्तमपत्रमें युक्ति पूर्वक लिखवाना. इसी प्रकार वाचन अर्थात् संवेगी गीतार्थ मुनिराजसे ग्रंथका आरम्भ होवे, उस दिन उत्सवआदि करके तथा प्रतिदिन सादी पूजा करके व्याख्यान करवाना; इससे बहुतसे भव्यजीवोंको प्रतिबोध होता है. साथही व्याख्यान करने तथा पढनेवाले मुनिराजोंको वस्त्रआदि वहोराकर उनकी सहायता करना चाहिये. कहा है कि जो लोग जिनाज्ञाकी पुस्तकें लिखावें, व्याख्यान करावें, पढें, पढावें, सुनें और विशेष यतनाके साथ पुस्तकोंकी रक्षा करें, वे मनुष्यलोक, देवलोक तथा निर्वाणके सुख पाते हैं. जो पुरुष केवलिभाषित सिद्धान्तको स्वयं पढे, पढावे अथवा पढनेवालेको वस्त्र, भोजन, पुस्तकआदि देकर सहायता करे, वह पुरुष इस लोकमें सर्वज्ञ होता है. जिनभाषित आगमकी केवलज्ञानसे भी श्रेष्ठता दीखती है. कहा है कि--सामान्यतः श्रुतोपयोग रखनेवाला श्रुतज्ञानी साधु जो कदाचित् अशुद्ध वस्तु वहोरी लावे तो उस वस्तुको केवली भगवान भी भक्षण करते हैं. कारण कि, ऐसा न करे तो श्रुत