________________
(७९०) ५ अरिहंतादि चारों शरण करना, ६ किये हुए दुष्कृतकी निंदा करना, ७ किये हुए शुभकर्मोंकी अनुमोदना करना, ८ शुभ भावना करना, ९ अनशन ग्रहण करना और १० पंचपरमेष्ठिनवकारकी गणना करना । ऐसी आराधना करनेसे यद्यपि उसीभवमें सिद्धि नहीं होवे, तथापि शुभ देवतापना तथा शुभमनुष्यत्व पाकर आठभवके अंदर सिद्ध हो ही जाता है। कारण कि, चात्रिवान् सात अथवा आठ भवसे अधिक भवग्रहण नहीं करता ऐसा आगमवचन है ।
उपसंहार
( मूलगाथा ) एअंगिहिधम्मविहि,
पइदिअहं निव्वहति जे गिहिणो ॥ इहभवि परभवि निव्वुइ
सुहं लहुं ते लहन्ति वं ॥ १७ ॥ संक्षपार्थ:- जो श्रावक प्रतिदिन इस ग्रंथमें कहीं हुई श्रावकधर्मकी विधिको आचरे, वह श्रावक इसभवमें, परभवमें अवश्य ही शीघ्र मुक्तिसुख पावे..