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कह गये हैं. निरयावलीमें कहा है कि-लेपकी, पाषाणकी, काष्टकी, दंतकी तथा लोहेकी और परिवार रहित अथवा प्रमाण रहित प्रतिमा घरमें पूजने योग्य नहीं. घरदेरासरकी प्रतिमाके सन्मुख बलिका विस्तार नहीं करना, परन्तु नित्य भावसे न्हवण और त्रिकाल पूजा मात्र अवश्य करना चाहिये
सर्व प्रतिमाएं विशेष करके तो परिवार सहित और तिलकादि आभूषण सहित बनानी चाहिये. मूलनायकजीकी प्रतिमा तो परिवार और आभूषण सहित होनीही चाहिये. वैसा करनेसे विशेष शोभा होती है, और पुण्यानुबंधिपुण्यका संचयआदि होता है. कहा है कि-जिनप्रासादमें विराजित प्रतिमा सर्व लक्षण सहित तथा आभूषण सहित होवे तो,उसको देखनेसे मनको जैसेरआल्हाद उपजता है, वैसे २ कर्म निर्जरा होती है. जिनमंदिर, जिनबिंबआदिकी प्रतिष्ठा करनेमें बहुत पुण्य है. कारण कि, वह मंदिर अथवा प्रतिमा जब तक रहे, उतनाही असंख्य काल तक उसका पुण्य भोगा जाता है. जैसे कि, भरतचक्रीकी स्थापित की हुई अष्टापदजी ऊपरके देरासरकी प्रतिमा, गिरनार ऊपर ब्रह्मेद्रकी बनाई हुई कांचनबलानकादि देरासरकी प्रतिमा, भरतचक्रवर्तीकी मुद्रिकाकी कुल्यपाकतीर्थमें विराजित माणिक्यस्वामीकी प्रतिमा तथा स्तम्भनपार्श्वनाथ आदिकी प्रतिमाएं आज तक पूजी जारही हैं. कहा है कि, जल, ठंडा अन्न, भोजन, मासिकआजीविका, वस्त्र, वार्षिकआजीविका, यावज्जीवकी आजीविका