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अर्थः- स्त्रीको रोगादिक होवे तो पुरुष उसकी उपेक्षा न करे, तपस्या, उजमणा, दान, देवपूजा, तीर्थयात्रा आदि धर्मकृत्योंमें स्त्रीका उत्साह बढाकर उसे द्रव्य आदि देकर उसकी सहायता करे, अंतराय कभी न करे । कारण कि, पुरुष स्त्रीके पुण्यका भागीदार है । तथा धर्मकृत्य कराना यही परम उपकार है । इत्यादि पुरुषका स्त्रीके सम्बन्धमें उचित आचरण जानो । (१८) अब पुत्रके सम्बन्धमें पिताका उचित आचरण कहते हैं. पुत्तं पइ पुण उचिअं, पिउणो लालेइ बालभावंमि ॥ . उम्मिलिअबुद्धिगुणं, कलासु कुसलं कुणइ कमसो ॥ १९ ॥ पिता बाल्यावस्थामें पौष्टिक अन्न, स्वेच्छासे हिरना फिरना, नानाभांतिके खेल आदि उपायोंसे पुत्रका लालन पालन करे,
और उसकी बुद्धिके गुण खिलें तब उसे कलाओंमें कुशल करे । बाल्यावस्थामें पुत्रका लालन पालन करनेका यह कारण है कि, उस अवस्थामें जो उसका शरीर संकुचित और दुबला रहे तो वह फिर कभी भी पुष्ट नहीं होसकता, इसीलिये कहा है कि
लालयेत्पञ्च वर्षाणि, दश वर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते षोडशमे वर्षे, पुत्रं मित्रभिवाचरेत् ॥ १ ॥ पुत्रका पांच वर्षकी अवस्था होने तक लालन पालन करना, उसके बाद दस वर्ष तक अर्थात् पन्द्रह वर्षकी अवस्था तक ताडना करना और सोलहवां वर्ष लग जाने पर पिताने पुत्रके साथ मित्रकी भांति बर्ताव करना चाहिये । ( १९)