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(५५८) उद्यानके अंदर स्थित गोत्रदेवी चक्रेश्वरीके मंदिरमें शीघ्र गई.
और परमभक्ति से कमलपुष्पोंकी मालाओंसे पूजा करके उसे विनती करी किः- "हे स्वामिनी ! मैंने जो मनमें कपट रहित भक्ति रखकर सर्वकाल तेरी पूजा, वंदना और स्तुति करी होवे तो आज मेरे ऊपर अनुग्रह कर अपनी पवित्रवाणीसे मेरी बहिनकी शुद्धि बता. हे मातेश्वरी ! अगर यह बात तुझसे न बनेगी तो, "यह समझ ले कि मैंने आजन्म पर्यंत भोजनका त्याग किया." कारणकि कौन नीतिमान् मनुष्य अपने इष्टव्यक्तिके अनिष्टकी मनमें कल्पना आने पर भोजन करता है ? "
तिलकमंजरीकी भक्ति, शक्ति और बोलनेकी युक्ति देखकर चक्रेश्वरी देवी प्रसन्न होकर शीघ्र प्रकट हुई. मनुष्य मनकी एकाग्रता करे तो क्या नहीं हो सकता ? देवीने हर्षपूर्वक कहा कि, "हे तिलकमंजरी! तेरी बहिन कुशल पूर्वक है. हे वत्से ! तू खेदको त्याग कर दे और भोजन कर. एक मासके अंदर तुझे अशोकमंजरीकी शुद्धि मिलेगी और दैवयोगसे उसी समय उसका ब तेरा मिलाप भी होगा. जो तू पूछना चाहेकि उसका मिलाप कहां व किस प्रकार होगा ? तो सुन-सघनवृक्षोंके कारण कायरमनुष्य जिसे पार नहीं कर सकता वैसी इस नगरकी पश्चिम दिशामें कुछ दूर पर एक अटवी (वन ) है. उस समृद्धअटवी में राजाका हाथ तो क्या ? परन्तु सूर्य की किरणे भी कहीं प्रवेश नहीं कर सकती. वहांके शृगाल भी अन्तः