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(५६०) गति दिव्यमयूर पक्षीपर बैठकर देवीकी भांति तिलकमंजरी नित्य क्षणमात्रमें जिनमहाराजकी पूजा करनेको आती जाती है. जहां वह आती है, वही यह चित्ताकर्षक बन, वही यह मंदिर, वही मैं तिलकमंजरी और वही यह विवेकी मयूरपक्षी है. हे कुमार ! इस प्रकार मैंने अपना वृत्तान्त कह सुनाया. हे भाग्यशाली ! अब मैं शुद्धमनसे तुझे कुछ पूछती हूं. आज एक मास पूर्ण होगया मैं नित्य यहां आती हूं. जैसे मारवाडदेशमें गंगानदीका नाम भी नहीं मिलता, वैसे मैंने मेरी बहिनका अभीतक नामतक नहीं सुना. हे जगत्श्रेष्ठ ! हे कुमार ! क्या मेरे ही समान रूपवाली कोई कन्या जगत्में भ्रमण करते हुए तेरे कहीं देखने में आई है ? '
तिलकमंजरीके इस प्रश्नपर रत्नसारकुमारने मधुरस्वरसे उत्तर दिया कि, 'भयातुर हरिणीकी भांति चंचलनेत्रवाली, त्रैलोक्यवासी सर्वस्त्रियों में शिरोमणि, हे तिलकमंजरी ! जगत्में भ्रमण करते मैंने यथार्थ तेरे समान तो क्या बल्कि अंशमात्रसे भी तेरे समान कन्या देखी नहीं, और देखूगा भी नहीं. कारण कि, जगत्में जो वस्तु होवे तो देखने में आवे, न होवे तो कहांसे आवे ? तथापि हे सुन्दरि ! दिव्यदेहधारी, हिंडोले पर चढकर बैठा हुआ, सुशोभित तरुणावस्थामें पहुंचा हुआ, लक्ष्मीदेवीके समान मनोहर एक तापसकुमार शबरसेनावनमें मेरे देखने में आया है. वह मात्र वचनकी मधुरता, रूप, आकारआदिसे