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करना. एकही वस्त्र पहिरकर, सिर पर भीगा हुआ वस्त्र लपेट कर, अपवित्र शरीरसे तथा अतिशय जिव्हालोलुपता रखकर भोजन न करना. पैरमें जूते पहिरकर, चित्त स्थिर न रखकर, केवल जमीन पर अथवा पलंग पर बैठकर, उपदिशा अथवा दक्षिणदिशाको मुख करके तथा पतले आसन पर बैठकर भोजन न करना. आसन पर पग रखकर तथा श्वान चांडाल और पतितलोगोंकी दृष्टि पडती हो ऐसे स्थानमें भोजन न करना. फूटे हुए तथा मलीनपात्रमें भी भोजन न करना. अपवित्र वस्तुओं द्वारा उत्पन्न हुआ, गर्भहत्या आदि करने वाले लोगोंका देखा हुआ, रजस्वला स्त्रीका स्पर्श किया हुआ तथा गाय, श्वान, पक्षी आदि जीवोंका सूंघा हुआ अन्न भक्षण न करना. जो भक्ष्य वस्तु कहांसे आई यह ज्ञात न हो तथा जो वस्तु अजानी हो उसे भक्षण न करना. एक बार पकाया हुआ अन्न पुनः गरम किया हो तो भक्षण न करना तथा भोजन करते समय मुखसे किसीप्रकारका शब्द अथवा टेढा बांका मुख न करना चाहिये. भोजन करते समय पडौसियोंको भोजन करनेके लिये बुला कर प्रीति उत्पन्न करना. अपनेइष्टदेवका नाम स्मरण करना तथा सम, चौडे, विशेष ऊंचा व नीचा न हो ऐसे स्थिर आसन पर बैठकर अपनी मौसी, माता, बहिन अथवा स्त्री आदि द्वारा तैयार किया हुआ तथा पवित्र व भोजन किये हुए लोगों द्वारा आदर पूर्वक परोसा हुआ अन्न एकान्तमें दाहिना स्वर बहता