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(६०१) पापी ! जिसके लिये संग्रामआदि पापकर्म करना पडे, उस राज्यका त्याग करना उचित है, परन्तु देवोंके दिये हुए राज्यमें पाप कहांसे होवे ? अरे मूढ ! मैं समृद्ध राज्य देता हूं, तो भी तू लेनेका आलस्य करता है ? अरे ! सुगंधित घृत पाते हुए खाली "बू-बू" ऐसा शब्द करता है ? रे मूर्ख ! तू बड़े अभिमानसे मेरे महल में गाढनिद्रामें सो रहा था ! और मेरेसे पांवके तलुवे भी मसलवाये ! ! हे मृत्युवश अज्ञानी ! तू मेरे कथनको हितकारी होते हुए भी नहीं मानता है, तो अब देख कि मेरे फलदायी क्रोधके कैसे कडवे फल हैं ?" _ यह कह जैसे गिद्धपक्षी मांसका टुकडा उठाकर जाता है वैसे वह राक्षस शीघ्र कुमारको अपहरण कर आकाशमें उड गया। और क्रोधसे कुमारको घोरसमुद्रमें डाल दिया । जब मैनाकपर्वतकी भांति कुमार समुद्रमें गिरा तब वज्रपातके समान भयंकर शब्द हुआ व मानो कौतुक ही से वह पातालमें जाकर पुनः ऊपर आया । जलका स्वभाव ही ऐसा है. पवात् जड ( जल ) मय समुद्रमें अजड (ज्ञानी ) कुमार कैसे रह सकेगा ? मानो यही विचार करके राक्षसने अपने हाथसे उसे बाहर निकाला और कहा कि- " हे हठी और विवेक शून्य कुमार ! तू व्यर्थ क्यों मरता है ? राज्यलक्ष्मीको क्यों नहीं अंगीकार करता ? अरे निंद्य ! देवता होते हुए मैंने तेरा निंद्य वचन कबूल किया और तू. कुछ मानवी होते हुए मेरा हित