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ऐक्यता ही से निर्वाह तथा शोभा आदि सम्भव है. इसलिये वे कार्य सबकी सम्मति से करना चाहिये । स्वजनोंके साथ ऐक्यता रखनेके ऊपर पांच अंगुलियोंका उत्कृष्ट उदाहरण है, यथा:
प्रथम तर्जनी ( अंगूठे के पासकी ) अंगुली लिखने में तथा चित्रकलाआदि प्रायः सर्वकार्यों में अग्रसर होनेसे तथा संकेत करनेमें, उत्कृष्टवस्तुका वर्णन करने में मना करनेमें, चिमटीआदि भरनेमें चतुर होनेसे अहंकारवश मध्यमा ( बीचकी ) अंगुलीको कहती है कि, " तुझमें क्या गुण हैं ? " मध्यमा बोली - " मैं सर्व अंगुलियोंमें मुख्य, बडी और मध्यभागमें रहनेवाली हूं, तंत्री, गीत, तालआदि कलामें कुशल हूं, कार्यकी उतावल बतानेके लिये अथवा दोष, छलआदिका नाश करने हेतु चिमटी बजाती हूं, और टचकारेसे शिक्षा करने वाली हूं. " इसी प्रकार तीसरी अंगुली से पूछा तब उसने कहा कि, " देव, गुरु, स्थापनाचार्य साधर्मिक आदिकी नवांगआदिमें चन्दन पूजा, मंगलिक, स्वस्तिक, नंद्यावर्तआदि करनेका, तथा जल, चन्दन, वासक्षेपचूर्ण आदिका अभिमंत्रण करना मेरे आधीन है. " पश्चात् चौथी अंगुलीको पूछा तो उसने कहा कि, "मैं पतली होने से कान खुजलानाआदि सूक्ष्म काम कर सकती हूं, शरीरमें कष्ट आने पर छेदन आदि पीडा सहती हूं, शाकिनी आदिके उपद्रव दूर करती हूं, जपकी संख्याआदि