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यशस्करे कर्माणि मित्रमङ्महे, प्रियासु नारोष्वधनेषु बंधुषु । धर्मे विवहे व्यसने रिपुन्तये, धनव्ययोऽष्टासु न गण्यते बुधैः ||२|| यः काकणीमप्यपथप्रपन्नामन्वेषते निष्क सहस्रतुल्याम् । काले च कोटिष्वपि मुक्तहस्तस्तस्यानुबंधं न जहाति लक्ष्मीः ||३||
१ यशका विस्तार करना हो, २ मित्रता करना हो, ३ अपनी प्रियत्रियोंके लिये कोई कार्य करना हो, ४ अपने निर्धन बान्धवोंको सहायता करनी हो, ५ धर्मकृत्य करना होवे, ६विवाह करना हो ७ शत्रुका नाश करना होवे, अथवा ८ कोई संकट आया होवे तो चतुरपुरुष धनव्यय की कुछ भी गिन्ती नहीं रखते. जो पुरुष एक कांकिणी भी कुमार्ग में चली जावे तो एक हजार स्वर्णमुद्राएं गई ऐसा समझते हैं, और वेही पुरुष योग्य अवसर आने पर जो करोडों धनका छूटे हाथसे व्यय करते हैं, तो लक्ष्मी उनको कभी भी नहीं छोड़ती है. जैसे:
एक श्रेष्ठी की पुत्रवधू नई विवाही हुई थी. उसने एक दिन अपने श्वसुर को दीवेमेंसे नीचे गिरी हुई तैलकी बूंदे अपने जूतों में लगाते देखा, इससे मनमें विचार करने लगी कि, 'मेरे वसुरकी यह कृपणता है कि काटकसर है ?' ऐसा संशय होने से वसुरकी परीक्षा करनेका निश्चय कर एक दिन सिर दुखनेका बहाना करके वह सो रही तथा बहुत चिल्लाने लगी. वसुर ने बहुत से उपाय किये तब उसने कहा कि, 'पहिले भी कभी कभी मेरे ऐसा ही दर्द होता था और वह सच्चे मोतियों