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(२३४) आदि मनुष्योंने कायोत्सर्ग, स्तुति आदि करके चैत्यवंदन किया" ऐसा कहा है, चैत्यवंदन जघन्यादिभेदसे तीन प्रकारका है । भाष्यमें कहा है कि
नमुकारेण जहन्ना, चिइवंदण मज्झ दंडथुइजुअला । पणदंडथुइच उक्कग-थयपणिहाणेहिं उक्कोसा ॥१॥
अर्थ- नमस्कार अर्थात् हाथ जोडकर सिर नमाना इत्यादिलक्षणवाला प्रणाममात्र करनेसे, अथवा “ नमो अरिहंताणं" ऐसा कह नमस्कार करनेसे, किंवा श्लोकादिरूप एक अथवा बहुतसे नमस्कारसे, किंवा प्रणिपातदंडकनामक शक्रस्तव ( नमुत्थुणं ) एकबार कहनेसे जघन्य चैत्यवन्दन होता है. चैत्यस्तवदंडक अर्थात् " अरिहंतचेइयाणं" कहकर अंतमें प्रथम एकही स्तुति ( थुइ ) बोले तो मध्यमचैत्यवंदन होता है. पांच दंडक अर्थात् १ शकस्तव, २ चैत्यस्तव (अरिहंतचेइयाणं), ३ नामस्तव ( लोगस्स ), ४ श्रुतस्तव (पुक्खरवादी), ५ सिद्ध स्तव (सिद्धाण बुद्धाणं ) ये पांच दंडक कहकर अंतमें प्रणिधान अर्थात् जयवीयराय कहनेसे उत्कृष्ट चैत्यवंदन होता है।
दूसरे आचार्य ऐसा कहते हैं कि- एक शक्रस्तवसे जघन्य, दो अथवा तीन शक्रस्तबसे मध्यम और चार अथवा पांच शकस्तवसे उत्कृष्ट चैत्यवंदन होता है । इरियावहीके प्रथम अथवा प्रणिधान ( जयवीयराय ) के अंत में शक्रस्तव कहना, और द्विगुण चैत्यवन्दनके अन्तमें भी शकस्तव कहनेसे तीन शक्र