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जिस समय स्वामी थका हुआ, क्षुधा अथवा तृषासे पीडित, क्रोधित, किसी काम में लगा हुआ, सोनेके विचार में तथा अन्य किसीकी विनती सुननेमें लगा हुआ हो उस समय सेवकने उससे न बोलना. सेवकने राजा ही के समान राजमाता, पटरानी, युवराज, मुख्य मन्त्री, राजगुरु व द्वारपाल इतने मनुष्यों के साथ भी बर्ताव करना चाहिये. " पहिले मैंने ही इसे सुलगाया है, अतः मैं इसकी अवहेलना करूं, तो भी यह मुझे नहीं जलावेगा. " ऐसे अयोग्यविचारेस जो मनुष्य अपनी अंगुली दीपक पर धरे, तो वह तत्काल जला देता है, वैसे ही "मैंने ही इसे हिकमतसे राजपदवी पर पहुंचाया है, अत: चाहे कुछ भी व्यवहार करूं, पर यह मुझ पर रुष्ट नहीं होगा. " ऐसे व्यर्थविचारसे जो कोई मनुष्य राजाको अंगुली लगावे तो वह रुष्ट हुए बिना नहीं रहता अतएव इस प्रकार कार्य करना कि वह रुष्ट न होवे. कोई पुरुष राजाको बहुत मान्य हो तो भी वह इस बातका गर्व न करे. कारण कि, " गर्व विनाशका मूल है. " इस विषय पर सुनते हैं कि:
दिल्लीनगर में बादशाह के प्रधानमन्त्रीको बडा गर्व हुआ. वह मनमें समझने लगा कि, “राज्य मेरे आधार ही पर टिक रहा हैं. " एक समय किसी बडे मनुष्यके सन्मुख उसने वैसी गर्वकी बात प्रकट भी करी. यह बात बादशाहके कान में पहुंचते ही उसने प्रधानमन्त्रीको पदच्युत कर दिया और