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(३८४) ता रूवं ताव गुणा, लज्जा सच्च कुल कमो ताव । तावच्चिअ अभिमाणं, देहित्ति न जंपए जाव ॥ १ ॥
मनुष्य जब तक मुंहसे " दो" यह शब्द नहीं निकालता, अर्थात् याचना नहीं करता, तब तक उसके रूप, गुण, लज्जा, सत्यता, कुलीनता व अहंकार रहे हैं ऐसा जानो. तृण अन्य वस्तुओंकी अपेक्षा हलका है, सई तृणसे हलकी है, और याचक तो रुईसे भी हलका है, तो इसे पवन क्यों नहीं उडा ले जाता ? उसका कारण यह है कि, पवनके मनमें यह भय रहता है कि, मैं इसे ले जाऊं तो यह मुझसे क्या मांगेगा? रोगी, लंबे कालका प्रवासी, नित्य दूसरेका अन्न भक्षण करनेवाला और दूसरेके घर सोनेवाला, इतने मनुष्यका जीवन मृत्युके समान है, इतना ही नहीं, परन्तु मर जाना यह तो इनको पूर्ण विश्रांति है, भिक्षा मांगकर निर्वाह करनेवाला मनुष्य निष्फिक्र, बहुभक्षी, आलसी व अतिनिद्रा लेनेवाला होनेसे जगत्में विलकुल निष्काम होता है. ऐसा सुनते हैं किकिसी कापालिक भिक्षा मांगनेके पात्रमें एक तेलीके बैलने मुंह डाला. तब कापालिकने चिल्लाकर कहा कि, "भिक्षा तो मुझे और भी बहुत मिल जावेगी, परन्तु इस बैलने भिक्षाके पात्रमें मुख डाला, इससे कहीं इसमें भिक्षाचरके आलस, बहुनिद्रा आदि गुण आजावें, और यह तुम्हें बेकाम हो जावे ! इसका मुझे बहुत खेद है ।" श्री हरिभद्रमरिने पांचवें अष्टकमें