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होगये, तो भी स्निग्ध आहारकी लोलुपतासे विहार न करते वे वहीं रहे. तदनंतर पंथक नामक एक साधुको मुनिराजकी सूश्रूषा करनेके लिये रख कर शेष सर्व साधुओंने विहार किया.
एक समय कार्तिकचौमासीके दिन शेलक मनिराज यथेच्छ आहार कर सो रहे. प्रतिक्रमणका समय आया तब पंथकने खमानेके निमित्त उनके पगमें अपना मस्तक अडाया. जिससे उनकी निद्रा उडगई और क्रुद्ध हुए, अपने गुरुको कुपित देख कर पंथकने कहा--'चातुर्मासमें हुए अपराध खमानेके निमित्त मैंने आपके चरणोंको स्पर्श किया, पंथकका ऐसा वचन सुन उनको वैराग्य उत्पन्न हुआ और मनमें विचार करने लगे कि, 'रसविषयमें लोलुप हुए मुझको धिक्कार है !' यह सोचकर उन्होंने तुरन्त विहार किया. पश्चात् अन्य शिष्य भी उन्हें मिले. वे शत्रुजय पर्वत पर अपने परिवार सहित सिद्धिको प्राप्त हुए...इत्यादि ___ इसलिये सुश्रावकने नित्य सद्गुरूसे धर्मोपदेश सुनना चाहिये । और धर्मोपदेशमें कहे अनुसार यथाशक्ति धर्मानुष्ठान भी करना चाहिये. कारण कि, जैसे केवल औषधिके जानने ही से आरोग्यता नहीं होती, तथा भक्ष्य पदार्थ भी केवल देखनेसे पेट नहीं भरता, वैसेही केवल धर्मोपदेश सुननेसे भी पूर्णफल नहीं मिलता. अतएव उपदेशानुसार धर्मक्रिया करना चाहिये. कहा है कि, पुरुषोंको क्रिया ही फलको देनेवाली है. केवल ज्ञान फल नहीं देता. कारण कि, स्त्री व भक्ष्य पदार्थके भोगने