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जिनको विधिपूर्वक धर्मक्रिया करनेका परिणाम हरदम होता है वे पुरुष तथा विधिपक्षकी आराधना करनेवाले, विधिपक्षका सत्कार करने वाले और विधिपक्षको दोष न देनेवाले पुरुष भी धन्य हैं। आसन्न सिद्धिजीवों ही को विधिसे धर्मानुष्ठान करनेका सदाय परिणाम होता है । तथा अभव्य और दूरभव्य होवे उसको तो विधिका त्याग और अविधिक सेवा करनेका ही परिणाम होता है । खेती, व्यापार, सेवा आदि तथा भोजन, शयन, बैठना, आना, जाना बोलना इत्यादि क्रिया भी द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि विधि से करी होवे तो फलदायक होती अन्यथा अल्प फलवाली होती है ।
इस बात पर दृष्टांत सुनते हैं कि - दो मनुष्योंने द्रव्यके निमित्त देशांतरको जा एक सिद्धपुरुषकी बहुत सेवा की । जिससे प्रसन्न हो उस सिद्धपुरुषने उनको अद्भुत प्रभावशाली तुम्बी - फलके बीज दिये। उनकी सर्व आम्नाय भी कही । यथा-सौ बार जोते हुए खेतमें धूप न होवे तथा अमुक वार नक्षत्रका योग होवे, तब ये बीज बो देना । बेल हो तो कुछ बीज लेकर पत्र, पुष्प, फल सहित बेलडीको उसी खेत में जला देना । उसकी भस्म एक माष भर ले चौसठ माषा भर तांबे में डाल देना उससे जात्य ( सो टचका ) सोना हो जाता है । ऐसी सिद्धपुरुषकी शिक्षा लेकर वे दोनों व्यक्ति घर आई । उनमें से एकको तो बराबर विधिके अनुसार क्रिया करनेसे जात्य सुवर्ण होगया,