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भी पुण्यकर्म किये बिना केवल नित्य जिन-बिंबको देखते २ मृत्युको प्राप्त हुआ, और मत्स्यके भवमें जाकर वहां प्रतिमाकारमत्स्यके दर्शनसे सम्यक्त्व पाया। यह चौथी शाखाका दृष्टांत है । इस प्रकार देवपूजादि धर्मकृत्योंमे एकांतसे प्रीति व बहुमान होवे तथा विधिपूर्वक क्रिया करे तो भव्यजीव यथोक्त फल पाता है, अतएव प्रीति, बहुमान और विधि विधान इन तीनोंका पूरा २ यत्न करना चाहिये. चालू विषय पर धर्मदत्त राजाका दृष्टान्त कहते हैं
चांदीके जिन-मंदिरसे सुशोभित ऐसे राजपुर नगर में चन्द्रमाकी भांति शीतकर और कुंवलयविकासी राजधर नामक राजा था. देवांगनाओंकी रूपसंपदासे समान सौन्दर्यवान उस राजाके प्रीतिमती आदि पांचसौ विवाहित रानियां थीं । प्रीतिमती रानीके अतिरिक्त शेष सब रानियोंने जगत्को आनन्दकारी पुत्रलाभसे चित्तको संतोष पाया, पर पुत्र न होनेसे वन्ध्या समान प्रीतिमती रानी बहुत ही दुःखित
१ शीतकर पदका चंद्र दरफ " ठंडी रश्मिका धारण करनेवाला" व गजाके तरफ " लोगोंसे शन्तिसे कर लेने वाला" ऐसा अर्थ होता है।
२ कुवलय विकासी इस पदका चन्द्र तरफ " कमलको खिलाने वाला" और राजाके तरफ " पृथ्वीको आनन्द देनेवाला " ऐसा अर्थ समझो।