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(३१५) वर्ष प्रारम्भ हुआ तब वसुमति भी देवगत हुई. लोगोंने उसका "निष्पुण्यक" नाम रखा. कंगालकी भांति जैसे तैसे निर्वाह करके वह बढने लगा.
एक दिन उसका मामा स्नेहसे उसे अपने घर लेगया. दैवयोगसे उसी दिनकी रात्रिको मामाके घरको भी चौरोंने लूट लिया. इस प्रकार जिस किसीके घर वह एकदिन भी रहा, उन सबके यहां चोर, डाकू, अग्निआदिका उपद्रव हुआ, कहीं कहीं तो घरधनी ही मरगया. पश्चात् “यह कपोतपोत (कबूतरका बच्चा) है ? कि जलती हुई भेड है ? अथवा मूर्तिमान उत्पात है ?" इस प्रकार लोग उसकी निन्दा करने लगे. जिससे उद्वेग पाकर वह निष्पुण्यक नामक सागरश्रेष्ठीका जीव देशदेशान्तरों में भटकता हुआ ताम्रलिप्ति नगरीको गया. वहां विनयंधर श्रेष्ठीके यहां नौकर रहा. उसी दिन विनयंधर श्रेष्ठीके घरमें आग लगी. जिससे उसने कुत्तेकी भांति अपने घरसे निकाल दिया. तदनंतर किंकर्तव्यविमूढ हो वह पूर्वभवमें उपजिन किये हुए कर्मोंकी निन्दा करने लगा, कहा है कि
कम्मं कुणंति सवसा, तस्सुदयंमि अ परव्वसा हुंति । .. रुक्खं दुरुहइ सवसो, निवडेइ परव्यसो तत्ते ॥ १ ॥
सर्व जीव स्वाधीनतासे कर्म करते हैं परन्तु जब उन्हें भोगनेका अवसर आता है तो पराधीन होकर भोगते हैं. जैसे मनुष्य स्वतंत्रता पूर्वक वृक्ष पर चढ जाता है, परन्तु गिरनेका समय