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होनेसे उधार रहा हुआ बहुतसा देवद्रव्य भी नष्ट होगया. उस कर्म के दोषसे उधाई करनेवालोंका उक्त प्रमुख व्यक्ति असंख्याता भव भटका इत्यादि.
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इसी प्रकार देवद्रव्य आदि जो देना हो वह अच्छा देना. घिसा हुआ अथवा खोटा द्रव्य आदि न देना. कारण कि वैसा करनेसे कोई भी प्रकार से देवद्रव्यादिकका उपभोग करनेका दोष होता है। वैसे ही देव, ज्ञान, तथा साधारण द्रव्य संबंधी घर, दुकान, खेत, बाडी, पाषाण, ईंट, काष्ठ, बांस, नलिया, माटी, खडिया आदि वस्तु तथा चन्दन, केशर, कपूर, फूल, छबडियां चंगेरी, धूपदान, कलश, बालाकुंची, छत्रसहित सिंहासन, चामर, चन्दुआ, झालर, भेरी आदि वाद्य, तंबू, कोडियां (मट्टी दीवे) पडदे, कम्बल, चटाई, कपाट, पाट, पटिया, पाटलियां, कुंडी, घडे, ओरसिया, काजल, जल व दीपक आदि वस्तु तथा मंदिरकी शाला में होकर नालीके मार्ग से आया जल आदि भी अपने कार्यके निमित्त न वापरना. कारण कि देवद्रव्यकी भांति उसके उपभोग से भी दोष लगता है. चामर, तम्बू आदि वस्तु तो काममें लेनेसे कदाचित् मलीन होने तथा टूटने फटने का भी संभव है, जिससे उपभोग करनेकी अपेक्षा भी अधिक दोष लगता है. कहा है कि
विधाय दीपं देवानां पुरस्तेन पुनर्नहि ।
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गृहकार्याणि कार्याणि, तिर्यङ्ङपि भवेद्यतः ॥ १ ॥
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