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वह इस प्रकार कि- “तुम मंस फलक (चित्रकारका पटिया) की भांति मंदिरको उज्वल रखो । जैसे चित्रकारके चित्रका पटिया स्वच्छ हो तो सब लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, वैसे ही तुम जो मंदिरोंको बारम्बार संमार्जन करके उज्वल रखो तो बहुत लोग तुम्हारी पूजा, सत्कार करेंगे।" और मंदिरके सेवक लोगोंको, जो कि मंदिरके, घर खेत आदि वृत्ति भोगते हैं, उनको ठपका देना । वह इस प्रकारः-- “एक तो तुम मंदिरकी वृत्ति भोगते हो, और दूसरे मंदिरकी संमार्जन आदि सारसम्हाल भी करते नहीं!" ऐसा कहने के उपरांत भी जो वे लोग मकडीके जाले आदि न निकाले, तो जिसमें जीव न दीख पडते हों ऐसे तंतूजालोंको साधु स्वयं निकाल डालें । ऐसे सिद्धान्तवचन के प्रमाणसे साधुने भी नष्ट होते हुए चैत्यकी सर्वथा उपेक्षा न करना चाहिये, ऐसा सिद्ध हुआ। चैत्यको जाना, पूजा करना, स्नान करना इत्यादिकी जो ऊपर विधी कही है वह सब ऋद्धिमान श्रावकके लिये है। कारण कि उसीसे, यह सब बन सकना संभव है । ऋद्धिरहित श्रावक तो अपने घर ही सामायिक लेकर किसीका कर्ज अथवा किसीके साथ विवाद आदि न होवे तो ईयासमिति आदिमें उपयोग रख साधुकी भांति नि निसाही आदि भावपूजाका अनुसरण कर विधिसे मंदिर जावे । पुष्पआदि सामग्री न होनेसे वह श्रावक द्रव्यपूजा करनेको असमर्थ होता है, इस लिये फूल गुथना आदि