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(१४१) एकाग्रता होनेके निमित्त जिन-भगवानकी कल्याणकादि भूमि इत्यादि तीर्थका अथवा अन्य किसी चित्तको स्थिर करनेवाले पवित्र व एकांत स्थानका आश्रय करना । ध्यानशतकमें कहा है कि
तरुण स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशीलपुरुष इनसे सर्वदा रहित ऐसा पवित्र एकांत स्थान मुनिराजका होता है। ध्यान करनेके समय ऐसा ही स्थान विशेष आवश्यकीय है । जिनके मन, वचन, कायाके योग स्थिरता पाये हों और इसीसे ध्यानमें निश्चल मन हुआ हो उन मुनिराजको तो मनुष्यकी भीडवाले गांव तथा शून्यअरण्यमें कोई भी विशेषता नहीं । अतएव जहां मनवचनकायाके योग स्थिर रहें व किसी जीवको बाधा न होती हो वही स्थान ध्यान करनेवालेके लिये उचित है। जिस समय मनवचनकायाके योग उत्तम समाधिमें रहते हों, वही समय ध्यानके लिये उचित है। ध्यान करनेवालेको दिनका अथवा रात्री ही का समय चाहिये इत्यादि नियम ( शास्त्र में ) नहीं कहा । देहकी अवस्था ध्यानके समय जीवको, बाधा देनेवाली न होवे उसी अवस्थामें, चाहे बैठ कर, खडे रह कर अथवा अन्य रीतिसे भी ध्यान करना । कारण कि साधुजन सर्वदेशोंमें, सर्वकालमें और सर्वप्रकारकी देहकी चेष्टामें पापकर्मका क्षय करके सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञानको प्राप्त हुए। इसलिये ध्यानके संबंध देश, काल और देहकी अवस्थाका कोई भी नियम सिद्धांतमें नहीं कहा। जैसे मनवचनकायाके योग