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विशुद्धिं वपुषः कृत्वा यथायोगं जलादिभिः । धौत वसीत द्वे, विशुद्धे धूपधूपिते ॥ १२ ॥
अवसर के अनुसार जलादिकसे शरीर शुद्ध करके धोये हुए, धूप दे सुगंधित किये हुए और पवित्र ऐसे दो वस्त्र धारण करना। लोक में भी कहा है कि हे राजन् ! देवपूजा में संधा हुआ, जला हुआ, और फटा हुआ वस्त्र न लेना, तथा दूसरेका वस्त्र भी धारण नहीं करना । एक बार पहिरा हुआ वस्त्र, जो वस्त्र पहिर कर मलोत्सर्ग, मूत्र तथा स्त्रीसंग किया हो, वह वस्त्र देवपूजा में उपयोग में न लेना । एकही वस्त्र धारण करके जीमना नहीं, तथा पूजा नहीं करना । त्रिधोंने भी कांचली बिना देवपूजा नहीं करना । इस परसे यह सिद्ध हुआ कि, पुरुषोंने दो वस्त्र बिना और स्त्रियोंने तीन वस्त्र बिना देवपूजादि न करना चाहिये । धुला हुआ वस्त्र मुख्यपक्षसे तो क्षीरोदक प्रमुख बहुत ऊंचा और वह श्वेतवर्ण रखना । उदायन राजाकी रानी प्रभावती आदिका भी श्वेत वस्त्र ही निशीथादिक ग्रंथ में कहा हैं । दिनकृत्यादिक ग्रंथोंमें भी कहा है कि - " सेअवस्थानिअंसणोत्ति " ( अर्थात् श्वेतवस्त्र पहिरने वाला आदि ) क्षीरोदक आदि वस्त्र रखने की शक्ति न हो तो, दुकुल ( रेशमी ) आदि श्रेष्ठ वस्त्र ही रखना. पूजाषोडशक में कहा है कि- "सितशुभवस्त्रेणेति" इसकी टीकामें भी कहा है कि - श्वेत और शुभ वस्त्र पहिर कर पूजा करना । यहां शुभवस्त्र पट्टयुग्मादिक लाल, पीलाआदि लिया