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घुटने और हाथ भूमिको लगा यथाविधि तीन वार वन्दना करे | पश्चात् आनन्दसे प्रफुल्लित हो सुश्रावक मुखकोश करके जिनेन्द्रप्रतिमा परका रात्रिका बासी फूल आदि निर्माल्य मोरपंखी से उतारे । तत्पश्चात् स्वयं जिनेश्वर के मन्दिरको पूंजे, अथवा दूसरे से पुंजावे । तदउपरान्त सुविधा के अनुसार जिनबिम्बकी पूजा करे । मुखकोश आठ पडका वस्त्रके टुकडेसे मुख तथा नासिकाका निश्वास रोकने के निमित्त बांधना | बरसातके समय निर्माल्य में कुंथुआआदि जीवोंकी उत्पत्ति भी हो जाती है, इसलिये वैसे समय में निर्माल्य तथा स्नात्रका जल जहां प्रमादी मनुष्यकी हालचाल न हो ऐसे पवित्रस्थान में डालना | ऐसा करने से जीवकी रक्षा होती है और आशातना भी टलती हैं । घरदेरासर में तो प्रतिमाको ऊंचे स्थान पर भोजनादिकृत्योंमें व्यवहारमें न आने वाले पवित्रपात्रमें स्थापन कर दोनों हाथों से पकडे हुए पवित्र कलशादिक के जलसे अभिषेक करना । उस समय --
बालत्तर्णम्म सामिअ, सुमेरुसिहरम्मि कणयकलसेहिं । तिसीसरेहि हविओ, ते धन्ना जेहिं दिट्ठोसि ॥ १ ॥
हे स्वामिन् ! चौसठ इन्द्रोंने बाल्यावस्था में मेरुपर्वत पर सुवर्णकलशसे आपको स्नान कराया, उस समय जिन्होंने आपको देखा, वे जीव धन्य हैं ॥ १ ॥ २ " तिअसासुरेहिं " इति पाठान्तरे ।