Book Title: Satya Harischandra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 10
________________ "हा रोहित, हा पुत्र ! अकेली, छोड़ मुझे तू कहाँ गया ? मैं जी कर अब बता करूं क्या ? ले चल मुझको जहाँ गया। पिछला दुःख तो भूल न पाई, यह आ वज्र नया टूटा । तारा तू नि गिनि कैसी, भाग्य सर्वथा तव फूटा ॥" - की ध्वनि, प्रति-ध्वनि किसी भी हृदय को कंपित कर देने में समर्थ है । मगर द्विज-पुत्र को इससे क्या, तारा उसकी दासी है उसे सुख पहुंचाने के लिए, अपने रुदन - स्वर से उसका हृदय दुःखित करने के लिए नहीं। वह चिल्ला पड़ता है"रोती क्यों है ? पगली हो क्या गया ? कौन-सा नभ टूटा, बालक ही तो था दासी के, जीवन का बन्धन - छटा ।" 'क्या उपचार ? मर गया वह तो, मृत भी क्या जीवित होते ? हम स्वामी दासों के पोछे, द्रव्य नही अपना खोते।" यह स्वामित्व, मानवता के लिए कितना बड़ा अभिशाप है ? ओह ! हरिश्चन्द्र का चारित्रिक 'क्लाइमेक्स' कफन कर वसूल करने में हमारे सामने आता है । सेवक का कर्तव्य वह नहीं छोड़ सकता, उसे तो वह चरम सीमा तक पहुंचा कर ही रहेगा। हरिश्चन्द्र, हरिश्चन्द्र है और संसार, संसार । एक क्षण के लिए भी संसार यदि हरिश्चन्द्र का आदर्श अपना ले, तो उसका नारकीय रूप, स्वर्ग में बदल जाए। कविश्रीजी का 'सत्य हरिश्चन्द्र' काव्य आदि से अन्त तक मानवता का आदर्श,एवं करुणा की उदभावना उपस्थित करने वाला काव्य है। इसमें ओज है, प्रवाह है और है सुष्ठ कल्पना । हम इसे अपनी विचार-धारा में महाकाव्य ही कहेंगे-नियम - निषेध से दूर । हरिश्चन्द्र अपने में पूर्ण है, उसका चरित्र भी अपने में पूर्ण है, ऐसी अवस्था में यह खण्ड काव्य की श्रेणी में नहीं आता। जान - बूझ कर भाषा शैली को दुरूह और अस्पष्ट बनाने की परिपाटी से कविश्रीजी ने अपनी कविता को पृथक रखा है । उनका उद्देश्य, उनके सामने रहा है। उनका उद्देश्य सर्व साधारण में मानवीय व्यक्तित्व को प्रश्रय देना मुख्य है। हमें विश्वास है, 'सत्य हरिश्चन्द्र' काव्य उनके उद्देश्य को आगे बढ़ाएगा। - कुमुद विद्यालंकार, पटना [ ६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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