Book Title: Satya Harischandra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 8
________________ सहज भाव से प्राप्त कर सकता है। कविश्रीजी की भावना यहाँ सुप्त हृदय को उत्तेजना देती है "प्राप्त कर सदगुण न बन, पागल प्रतिष्ठा के लिए, जब खिलेगा फूल खद, अलि • वन्द आ मंडराएगा। दूसरों के हित 'अमर', जल • संग्रही सरवर बन, दीन के हित धन लुटाया, क्या कभी मन भाएगा !" हम यहाँ भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि कवि के रूप में उन को देखते हैं। Domestic Sentiment ( गार्हस्थ्य - भाव ) में भी वे त्याग की अर्चना हमें सिखाते हैं, यह उनकी विशेषता है। अपने त्याग-पूर्ण जीवन में यह बात नहीं है कि उन्होंने सांसारिक व्यथावेदनाओं पर से अपनी आँखें फिराली हैं। करुणा और दया के अटट सम्बन्ध ने आपके काव्य और व्यक्तित्व दोनों को भावना मय बनाया है । भाग्य चक्र में अपनी सारी राज्य - सम्पत्ति विश्वामित्र को दान में देकर हरिश्चन्द्र जब शरद-जलद के समान हल्के हो जाते हैं, तो दुनिया की दृष्टि में बहुत ऊपर उठ जाते हैं। अतीत का वैभव-विलास उनके लिए स्वप्न बन कर रह जाता है। वर्तमान में नंगे पैरों उनका अभियान, प्रिया-पुत्र के साथ आत्म - विक्रय के लिए काशी की ओर होता है। भूख की ज्वाला मानव हृदय को नीच-से-नीच प्रवत्तियों पर उतार लाती है, मगर ऐसा होता है वहीं, जहाँ भूख-क्षुधा का महत्त्व मानव-मर्यादा से अधिक आँका जाता है। ऐसी घड़ियों में हरिश्चन्द्र की कर्तव्य • निष्ठा और आत्म - गौरव मानव • श्रद्धा की वस्तु बन कर सामने आती है । वह जीवन-धारण के लिए-परिश्रम का भोजन प्राप्त करेगा, क्षत्रिय • धर्म में किसी की दी हुई वस्तु का ग्रहण उसके लिए अनुचित है। " भिक्षा या अनुचित पद्धति से, ग्रहण न करते भोजन भी, सत्य-धर्म से तन क्या डिगना, डिगता है न कभी मन भी।" कविश्रीजी का हृदय हरिश्चन्द्र की कर्तव्य - निष्ठा पर मात्र गर्वित होकर ही नहीं रह जाता, वह दुनिया में धनी - दीन का संघर्ष, उपेक्षा-पीड़ा जन्य दुःखानुभूति भी करता है। इस प्रकार उनकी कल्पना, अपनी परिधि बढ़ाकर उन्हें वर्तमान काल की त्रस्त मानवता का चित्र देखने को बाध्य करती है। वे सर्वहारा दल की ओर से नहीं, प्रत्युत मानवता की ओर से पुकार उठते हैं [ ७ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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