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स्वाध्याय ।
दलसुख मालवणिया जैनविषय को लेकर अनेक पुस्तकें प्रकाशित होती है और प्राकृत भाषा · में भी पुस्तकें प्रकाशित होती रहती हैं, किन्तु विद्वानों की शिकायत है, कि उन्हे उनका पता ही नहीं लगता । अतएव संबोधि में प्रत्येक अंक में नवीन प्रकाशित पुस्तकों का सामान्य परिचय देने का निश्चय किया गया है । लेखकों और प्रकाशकों से निवेदन है कि वे अपनी पुस्तकें भेजें । यदि पुस्तकें भेज न सकें तो उनका परिचय - ग्रन्थनाम, भाषा, प्रकाशक, प्रकाशन स्थान पृष्ठ, मूल्य और प्रकाशन वर्ष- लिखकर भेजे ।
जैनाचार्य रविपेणकृत 'पद्मपुराग' और तुलसीकृत 'रामचरितमानस'-ले० डॉ... रमाकान्त शुक्ल, प्र० वाणी परिपद्, दिल्ली, पृ० ४८०+१६, मू० साठ रुपये । ई० १९७४।
डो० रमाकान्त शुक्ल धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने इस ग्रन्थ में एक जैनाचार्यकी काव्यकला का परिचय ही नहीं दिया किन्तु पद्मपुराण की विषय वस्तु की तुलना भी रामचरितमानसके साथ की । यद्यपि ग्रन्थ के नाम के साथ 'पुराण' शब्द लगा हुआ है फिर भी. इस ग्रन्थ का स्थान महाकाव्य में है-अतएव उस दृष्टि से भी इसका अध्ययन जरूरी था
और डो. रमाकान्त ने अपने इस Ph. D. के लिए लिखे गये महानिबन्धमें एक तटस्थ विद्वान को शोभा दें इस तरह परीक्षण किया है । केवल रामचरितमानसके साथ ही नहीं किन्तु कालिदास.
आदि अन्य महाकविओं की कृतिओं के साथ भी तुलना की गई है और रविषेणसे. • पूर्वकालीन कविओं का प्रभाव इस पुराण में किस प्रकार से है यह जो दिखाया है वह
डो. रमाकान्त शुक्लके महाकाव्यों का दीर्घकालीन विशेष अध्ययन कितना गहरा है यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है । आशा करता हूँ कि डो. रमाकान्त शुक्ल को जो जैन महाकाव्यों में रस मिला है वह सतत बढेगा और ऐसे अन्य ग्रन्थ वे लिखकर विद्वज्जगत् को ऋणी बनाएँगे।
चितेरों के महावीर-ले० डा. प्रेमसुमन जैन । प्र० अमर जैन साहित्य संस्थान, उदयपुर । पृ० १७८ । मू० छह रुपये । ई० १९७५ ।
भ० महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के प्रसंग में भ. महावीर के विषय में जो निबन्ध प्रतियोगिता हुई थी उसमें जैन ट्रस्ट कलकत्ता की ओरसे इस ग्रन्थको पुरस्कार मिला है । यह ग्रन्थ एक निबन्ध के रूप में नहीं लिखा गया किन्तु उपन्यासके रूपमें लिखा गया है । इसमें लेखकने केवल पुरानी परंपरा का ही उपयोग नहीं किया किन्तु भ. महावीर के जीवनकी आधुनिक व्याख्याओं का भी उपयोग किया है । अतएव यह उपन्यास केवल उपन्यास ही नहीं रहा किन्तु प्रेरणादायी जीवन साहित्य भी बन गया है ।
श्रमण महावीर-ले० मुनि नथमल, प्र० जैन विश्व भारती, लाडनूं, पृ०. ३६०, मू० सोलह रुपये । ई० १९७५ (?)
मुनि श्री नथमलजी विचार-पूत निबन्ध लेखक के रूप में तो सुप्रसिद्ध हैं ही। अब वे हमारे समक्ष उपन्यास लेखक के रूप में भी इस ग्रन्थ में उपस्थित हैं । भ० महावीर के जीवन