Book Title: Sambodhi 1975 Vol 04
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 326
________________ स्वाध्याय १०९ noem and its author. His exposition of the choice topics from the poem, his observation on the stark realism of Väkpati's discriptions, and his sketch of the society, as revealed in the poem, have really raised Väkpati to a higher pedestal in the galaxy of our classical poets." Sramana Bhagavan Mahavira : by K. C. Lalwani, Pub. Minerra Associates (Publications) PVT. Ltd, 7-B Lake place, Calcutta 700029, pp. 206, Rs. 36/-; 1975. Herein Prof. Lalvani who is a social scientist has presented the life and doctrine of Mahāvira that would appeal to the rational mind, Apart from a brief life-sketch and Mahavira's philosophy and religious ideas the author has discussed his scientific doctrines such as cosmology, biology, physics etc. Dharmaratnākara of Jayasena : Ed. Dr. A. N. Upadhye; Published by Jaina Sanskriti Samraksaka Sangha, Sholapur, 1974, pp. 544-464; Price Rs. 20. Jayasena composed this work in A.D. 998 in Sanskrit and Dr. Upadhye bas critically edited the text for the first time and it is translated into Hindi by Pt. Jinadas Parshvanath Phadakule. Subjects dealt with by the author are-consequences of Punya and Papa, Fruits of Abhayadāna, Ābāra dana etc., Sadhupuja, Dana and its Fruits, Jianadana, Ausadha-dana, Rise of Samyaktva, Limits of Samyaktva, Pratimas etc.. As usual Dr. Upadhye has given an extenstive Introduction and various Appendices. जिनवाणी : जैन संस्कृति और राजस्थान-विशेषांक. अप्रैल-जुलाई, १९७५, पृ० ४९६, प्र० सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, बापू बाजार, जयपुर-३., इस · अंकका मूल्य दश रुपया । जिनवाणी पत्रिका का यह विशेषांक अनेक संपादकों के तथा अनेक लेखकों के सहकार से उच्च कोटिका बना है। इसमें जैन संस्कृति के विषय के लेखों के अलावा राजस्थान में जैन संस्कृति का विकास, राजस्थान का सांस्कृतिक विकास और जैनधर्मानुयायी-इन दो विभागों में विद्वानों के लेख हैं। अन्त में परिचर्चा में अनेक विद्वानों ने राजस्थान के सांस्कृतिक विकास में जैन धर्म एवं संस्कृतिका योगदान इस विषय की परिचर्चा की है । इस पत्रिका के प्रधान संपादक प्रो. डो. नरेन्द्र भानावत की सूझ और परिश्रम के कारण यह विशेषांक अभ्यासी के लिए पठनीय बना है। __ कोण ओळखे छे महावीरने ? श्री अमरचंद देवकरण गांधी, सेलम-२, ए लखेल अने मार्च ७५ मां स्वयं प्रकाशित पुस्तिका वितरण माटे छे. ट्रंकामां भ. महावीरना व्यक्तित्वने सारो ऊठाव आप्यो छे.. तुलसी प्रज्ञा--जैन विश्वभारती, लाडनू (राजस्थान) की त्रैमासिक पत्रिका, जनवरी ७५ से प्रकाशित होने लगी है । जैन विद्या के विविध विषयों के संशोधनात्मक लेख हिन्दीअंग्रेजी में मुद्रित हैं। संपादक श्री प्रो. डो. महावीरराज गेलडा के प्रयास से यह पत्रिका जैनविद्या के विकास में योगदान करेगी ऐसी आशा बंधती है ।

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