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सिद्धिसरिकृत पाटण-चैत्य-परिपाटी (सं. १५७६) "
संपादक-भोगीलाल ज. सांडेसरा मध्य कालमा रचायेलु तिहासिक जैन गुजराती साहित्य भाषा अने साहित्यना विकासनी दृष्टिए तो अगत्यर्नु छे, परन्तु ए साहित्य मात्र जैन समाजनी ज नहि, पण तत्कालीन गुजरातनी धार्मिक-सामाजिक स्थिति उपर अनेकविध प्रकाश पाडे छे. व्यक्तिगत आचार्यों के गुरुओ विषे विस्तृत रासाओं उपरांत नानकडां स्तवनो के फागुओ रचायेलां छे. जैन तीर्थोनु वर्णन करती के एनो वृत्तान्त आलेखती अनेक नानी मोटी कृतिओ मळे छे. जूनी तीर्थमालाओ के चैत्यपरिपाटीओना केटलाक संग्रहो प्रगट थया छे. केटलांक विशिष्ट' नगरोनी चैत्यपरिपाटीओ ते ते नगरोना स्थानिक इतिहास माटे पण कामनी छे.
गुजरातनी ऐतिहासिक पाटनगरी पाटण विषे एक करतां वधु चैत्यपरिपाटीओ मळे छे ते, ए महानगरनां स्थळनामोनो अने स्थानिक वसतीमां धार्मिक-सांप्रदायिक फेरफारोनो अभ्यास करवा माटे उपयोगी छे. सं. १६४८ (ई. स. १५९२)मां ललितप्रभसूरिए अने सं. १७२९ (ई. स. १६७३)मां हर्षविजये रचेली 'पाटण-चैत्य-परिपाटी'नु संपादन मुनि श्री कल्याणविजयजीए कयु छे (प्रकाशक-श्री हंसविजयजी जैन लायब्रेरी, अमदावाद, सं. १९८२). सं.१८२१ (ई. स. १७६५)मा उपाध्याय ज्ञानसागरजीए 'तीर्थमाला स्तवन' रच्यु छे, तेमां पाटणनी चैत्यपरिपाटीनो पण समावेश थाय छे (जुओ 'जैन सत्य प्रकाश, वर्ष ८, अङ्क १२, सप्टेम्बर १९४३). आ मुद्रित चैत्यपरिपाटीओ उपरांत सं. १६१३ (ई. स. १५५७)मां १९३ कडीमां रचायेली, सिंधराजकृत 'पाटण-चैत्य-परिपाटी'नी हस्तप्रत अमदावादमां पगथियाना उपाश्रयना भंडारमा छे.
पाटणनी उपलब्ध चैत्यपरिपाटीओमां सौथी जूनी, सिद्धिसूरिकृत 'पाटण-चैत्य-परिपाटी' पण अप्रगट हतो, जे अहों प्रसिद्ध करवानी तक लउ छु. सद्गत पंन्यास श्री रमणिकविजयजी महाराज पासे जोयेली चार पत्रनी हस्तलिखित प्रत उपरथी एनी नकल सने १९५०मां जेसलमेर खाते में करी लीधी हती. हस्तपतमां लेखनसंवत नथी, पण लिपि उपरथी विक्रमना सोळमा सैकाना अंतमां के सत्तरमा सैकाना प्रारंभमा एनी नकल थई जणाय छे. रचनावर्ष परत्वे कृतिने अन्ते
'छिहत्तरइ वरसइ, मनह हरिसइ सिद्धसूरिंदइ कहीं' ए उल्लेखमा छिहत्तरइ' अर्थात छोतेर ए, कृतिनु भाषास्वरूप जोतां, सं. १५७६ संभवे छे.' एटले के सिद्धिसूरिकृत 'पाटण-चैत्य-परिपाटी ई. स. १५२०मां रचायेली गणाय. सं. १६१६ (ई. स. १५६०) मां 'सिंहासन-बत्रीसी' रचनार सिद्धिसूरि' आ चैत्यपरिपाटी रचनार सिद्धिसूरिथी अभिन्न हशे के केम ए निश्चितपणे कहेवु शक्य नथी. 'पाटण-चैत्य-परिपाटी' ए जो सिद्धिसूरिनी प्रारं
१. चतुर्भुजकृत 'भ्रमरगीता'ने अन्ते 'छिहुतरि कीधु छूटवा भेटवा श्री भगवान' ए उल्लेखमां 'छिहुतरि'ने सं. १५७६ गणवामां आन्यो छे ए सरखावो. ('प्राचीन फागुसंग्रह', कान्यांक-१९).
२. 'जैन गुर्जर कविओ', भाग १, पृ. २०६