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लघुपुत्र है जाते.अति अल्पकालमें जिनेश्वर होनेयोग्य है । अर भेदविज्ञानाहाकामथ्यात्वकामा नाश करनेवाला अर अवदात कहिए निर्मल ऐसा निजपरका सत्सार्थस्वरूप प्रगट भया है। ऐसी तिनकी शुद्धदशा पहिचानि बनारसीदास हस्तजोरि वंदना करे है ॥ ६॥ पुनः॥-12
खारथके सांचे परमारथके सांचे चित्त, सांचे सांचे वैन कहे सांचे जैनमती है ॥ काहूके विरुद्धीनांही परजाय बुद्धीनांही, आतमगवेपी न गृहस्थहै न यती है ।। रिद्धिसिद्धि वृद्धीदीसै घटमें प्रगटसदा, अंतरकी लछिसौं अजाची लक्षपती है ॥ दास भगवंतके उदास रहै जगतसौं, सुखिया सदैव ऐसेजीव समकीती है ॥७॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टीपुरुष कैसे है ? स्वार्थ कहिए आत्मपदार्थमें जिन्हकै सांचीप्रीति है अर परमार्थ कहिए मोक्षपदार्थमें सांचीप्रीति है अर चित्त जिन्हका सांचा है अर सांचे वचनके । कहनहारे है अरं जिनेंद्रमतमें सांची अचल जाकै प्रतीति है । समस्त नयनिके ज्ञाता हे ताते किसीहीका विरोधी नहीहै अर जिन्हके पर्यायमें आत्मबुद्धी नहीं है अर आत्माका अवलोकन । करनेते शरीरादिक परवस्तुमें मोह रहितहै, ग्रहस्थपनामेंहू जाकै आपा नहीं है अर यतीपना-18 मेंहू आपा नहींहै । समस्त आत्मकल्याणकी सिद्धि तथा आत्माकी अनंत शक्तिरूप ऋद्धि । है अर आत्माके अनंत गुणनिकी वृद्धि जिन्हळू सदाकाल अपनें घटमेंही प्रगट दीखैहै, अंतरा
मापनेकी लक्ष्मीत याचना रहित लक्षपती है । भगवान् वीतरागकेदास है, जगतसूं उदासीन रहे है, समस्त परपदार्थमें रागदेष रहित है तासौंही उदासीनता है अर सदाकाल आत्मीक ||सुखयुक्त महासुखी है, ऐसे गुणनिके धारकजीव सम्यग्दृष्टी है ॥ ७ ॥ पुनः ॥ ३१ ॥